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________________ उत्थान, बल, वीर्य प्रादि इन्हीं के प्रकार हैं। योग शुभ और अशुभ दोनों प्रकार का है। मिथ्यात्व, अवत, प्रमाद, कषाय रहित योग शुभ है और इनसे सहित योग अशुभ है / सत् प्रवृत्ति शुभ योग है और असत् प्रवृत्ति अशुभ योग है। सत् प्रवृत्ति और असत् प्रवृत्ति दोनों से उदीरणा होती है।०४ वेदना गौतम ने भगवान् से पूछा-भगवन् ! अन्य यूथिकों का यह अभिमत है कि सभी जीव एवंभूत वेदना (जिस प्रकार कर्म बांधा है उसी प्रकार) भोगते हैं क्या यह कथन उचित है ? भगवन् ने कहा-गौतम ! अन्य यूथिकों का प्रस्तुत एकान्त कथन मिथ्या है / मेरा यह अभिमत है कि कितने ही जीव एवंभूत-वेदना भोगते हैं और कितने ही जीव अन-एवंभूत-वेदना भी भोगते हैं। गौतम ने पुनः प्रश्न किया-भगवन् ! यह कैसे ? भगवान् ने कहा-गौतम ! जो जीव किये हुए कर्मों के अनुसार ही वेदना भोगते हैं वे एवंभूत-वेदना भोगते हैं और जो जीव किये हुए कर्मों से अन्यथा वेदना भोगते हैं वे अन-एवंभूतबेदना भोगते हैं। निर्जरा आत्मा और कर्माण वर्गणा के परमाणु, ये दोनों पृथक् हैं। जब तक पृथक् रहते हैं तब तक प्रात्मा, आत्मा है और परमाणु-परमाणु है। जब दोनों का संयोग होता है तब परमाणु 'कर्म' कहलाते हैं। कर्म-प्रायोग्य-परमाणु जब-प्रात्मा से चिपकते हैं तब वे कर्म कहलाते हैं। उस पर अपना प्रभाव डालने के पश्चात् वे अकर्म हो जाते हैं। अकर्म होते ही वे प्रात्मा से अलग हो जाते हैं / इस अलगाव का नाम निर्जरा है। कितने ही फल टहनी पर पककर टूटते हैं तो कितने ही फल प्रयत्न से पकाये जाते हैं / दोनों ही फल पकते हैं किन्तु दोनों के पकने की प्रक्रिया पृथक्-पृथक् है / जो सहज रूप से पकता है उसके पकने का समय लम्बा होता है और जो प्रयत्न से पकाया जाता है उसके पकने का समय कम होता है / कर्म का परिपाक ठीक इसी प्रकार होता है / निश्चित काल-मर्यादा से जो कर्म-परिपाक होता है वह निर्जरा विपाकी-निर्जरा कहलाती है। इसके लिए किसी भी प्रकार का नवीन प्रयत्न नहीं करना पड़ता इसलिए यह निर्जरस न धर्म है और न अधर्म है। निश्चित काल-मर्यादा से पूर्व शुभ-योग के द्वारा कर्म का परिपाक होकर निर्जरा होती है वह अविपाकी निर्जरा कहलाती है / यह निर्जरा सहेतुक है / इसका हेतु शुभ-प्रयास है, अतः धर्म है। प्रात्मा पहले या कर्म ? आत्मा पहले है या कर्म पहले है ? दोनों में पहले कौन है और पीछे कौन है ? यह एक प्रश्न है। 104. भगवती 1 / 335 [ 37] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003479
Book TitleAgam 11 Ang 11 Vipak Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages214
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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