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________________ अधीन ही होता है और जब जीव प्रबल पुरुषार्थ के साथ मनोबल और शरीर-बल आदि सामग्री के सहयोग से सत प्रयास करता है तब कर्म उसके अधीन होता है। जैसे-उदयकाल से पहले कर्म को उदय में लाकर नष्ट कर देना, उसकी स्थिति और रस को मन्द कर देना / पूर्वबद्ध कर्मों की स्थिति और फल-शक्ति नष्ट कर उन्हें बहुत ही शीघ्र नष्ट करने के लिए तपस्या की जाती है। पातञ्जल योगभाष्य में भी अदृष्टजन्य वेदनीय कर्म की तीन गतियां निरूपित की गई हैं। उनमें एक गति यह है-कई कर्म बिना फल दिये ही प्रायश्चित्त आदि के द्वारा नष्ट हो जाते हैं / 10 // इसे जैन-पारिभाषिक शब्दों में प्रदेशोदय कहा है। उदीरणा गौतम ने भगवान से प्रश्न किया-भगवन् ! जीव उदीर्ण कर्म-पुद्गलों की उदीरणा करता है ? अथवा अनुदीर्ण कर्म-पुद्गलों की उदीरणा करता है ? उत्तर मिला-जीव अनुदीर्ण पर उदीरणा-योग्य कर्म-पुद्गलों की उदीरणा करता है। (1) उदीर्ण कम-पुद्गलों की पुनः उदीरणा की जाय तो उस उदीरणा की कहीं पर भी परिसमाप्ति नहीं हो सकती। अतः उदीर्ण की उदीरणा नहीं होती। (2) जिन कर्म-पूदगलों की उदीरणा वर्तमान में नहीं पर सूदूर भविष्य में होने वाली है या जिसकी उदीरणा०२ नहीं होने वाली है, उन अनुदीर्ण-कर्म-पुद्गलों की भी उदीरणा नहीं हो सकती है। (3) जो कर्म-पुद्गल उदय में आ चुके हैं (उदयानन्तर पश्चात्-कृत) वे शक्तिहीन हो गये हैं, उनकी भी उदीरणा नहीं होती। (4) जो कर्म-पुद्गल वर्तमान में उदीरणा-योग्य (अनुदीर्ण किन्तु उदीरणा-योग्य) हैं उन्हीं की उदीरणा होती है। उदीरणा का कारण कम जब स्वाभाविक रूप से उदय में आते हैं तब नवीन पुरुषार्थ की अावश्यकता नहीं होती / अबाधा स्थिति पूर्ण होते ही कर्म-पुद्गल स्वत: उदय में आ जाते हैं। स्थिति-क्षय से पूर्व उदीरणा द्वारा उदय में लाये जा सकते हैं। एतदर्थ इसमें विशेष प्रयत्न या पुरुषार्थ की आवश्यकता होती है / 03 __इसमें भाग्य और पुरुषार्थ का समन्वय है। पुरुषार्थ से कर्म में भी परिवर्तन हो सकता है, यह बात पूर्ण रूप से स्पष्ट हैं। कर्म की उदीरणा 'करण' से होती है। करण का अर्थ 'योग' है। योग के तीन प्रकार हैं-- मन, वचन और काय। 101. कृतस्याऽविपक्वस्य नाशः अदत्तफलस्य कस्यचित पापकर्मणः प्रायश्चित्तादिना नाश इत्येका गतिरित्यर्थः। -पातंजलयोग 2113 भाष्य 102. भगवती 113335 103. भगवती 113135 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003479
Book TitleAgam 11 Ang 11 Vipak Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages214
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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