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________________ उत्तर है---प्रात्मा और कर्म दोनों अनादि हैं। कर्मसन्तति का आत्मा के साथ अनादि काल से सम्बन्ध है / प्रतिपल-प्रतिक्षण जीव नूतन कर्म बांधता रहता है। ऐसा कोई भी क्षण नहीं, जिस समय सांसारिक जीव कर्म नहीं बांधता हो। इस दृष्टि से आत्मा के साथ कर्म का सम्बन्ध सादि भी कहा जा सकता है पर कर्म-सन्तति की अपेक्षा प्रात्मा के साथ कर्म का सम्बन्ध अनादि है।०५ अनादि का अन्त कैसे ? प्रश्न है-जब प्रात्मा के साथ कर्म का सम्बन्ध अनादि है तब उसका अन्त कैसे हो सकता है ? क्योंकि जो अनादि होता है उसका नाश नहीं होता। उत्तर है-अनादि का अन्त नहीं होता, यह सामुदायिक नियम है, जो जाति से सम्बन्ध रखता है। व्यक्ति विशेष पर यह नियम लाग नहीं भी होता / स्वर्ण और मिट्टी का सम्बन्ध अनादि है तथापि वे पृथक्-पृथक् होते हैं। वैसे ही आत्मा और कर्म के अनादि सम्बन्ध का अन्त होता है / 106 यह भी स्मरण रखना चाहिए कि व्यक्ति रूप से कोई भी कर्म अनादि नहीं है। किसी एक कर्मविशेष का अनादि काल से आत्मा के साथ सम्बन्ध नहीं है। पूर्वबद्ध कर्म स्थिति पूर्ण होने पर कर्म आत्मा से पृथक हो जाते हैं। नवीन कर्म का बन्धन होता रहता है। इस प्रकार प्रवाह रूप से आत्मा के साथ कर्मों का सम्बन्ध अनादि काल से है१०७ न कि व्यक्तिशः / अत: अनादिकालीन कर्मों का अन्त होता है / संवर के द्वारा नये कर्मों का प्रवाह रुकता है और तप द्वारा संचित कर्म नष्ट होते हैं। तब आत्मा मुक्त बन जाता है / 106 आत्मा बलवान या कर्म आत्मा और कम इन दोनों में अधिक शक्ति-सम्पन्न कौन है ? क्या आत्मा बलवान् है या कर्म बलवान् हैं ? . समाधान है-आत्मा भी बलवान् है और कर्म भी बलवान हैं। आत्मा में अनन्त शक्ति है तो कर्म में भी अनन्त शक्ति है / कभी जीव काल आदि लब्धियों को अनुकूलता होने पर कर्मों को पछाड़ देता है और कभी कर्मों की बहुलता होने पर जीव उनसे दब जाता है / 106 बहिर्दष्टि से कर्म बलवान् प्रतीत होते हैं पर अन्तर्दृष्टि से आत्मा ही बलवान् है क्योंकि कर्म का कर्ता अात्मा है / वह मकड़ी की तरह स्वयं कर्मों का जाल फैला कर उनमें उलझता है। यदि वह चाहे तो कर्मों को काट भी सकता है। कर्म चाहे कितने भी शक्तिशाली हों पर आत्मा उससे भी अधिक शक्तिसम्पन्न है। 105. परमात्मप्रकाश 1159 / 60 106. द्वयोरप्यनादिसम्बन्धः कनकोपल-सन्निभः / 107. (क) पंचाध्यायी 2 / 45, पं. राजमल (ख) लोकप्रकाश 424 (ग) स्थानाङ्ग 11417 टीका 108. उत्तराध्ययन 2045 109. गणधरवाद 2-25 [38] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003479
Book TitleAgam 11 Ang 11 Vipak Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages214
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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