________________ लौकिक दृष्टि से पत्थर कठोर है और पानी मुलायम है किन्तु मुलायम पानी पत्थर के भी टुकड़े-टुकड़े कर देता है। कठोर चट्टानों में भी छेद कर देता है। वैसे ही आत्मा की शक्ति कर्म से अधिक है। वीर हनुमान को जब तक स्व-स्वरूप का परिज्ञान नहीं हुआ तब तक वह नाग-पाश में बंधा रहा, रावण की ठोकरें खाता रहा, अपमान के जहरीले धूट पीता रहा, किन्तु ज्यों ही उस स्वरूप का ज्ञान हुआ, त्यों ही नाग-पाश को तोड़कर मुक्त हो गया। आत्मा को भी जब तक अपनी विराट् शक्ति का ज्ञान नहीं होता तब तक वह भी कर्मों को अपने से अधिक शक्तिमान् समझकर उनसे दबा रहता है, ज्ञान होने पर उनसे मुक्त हो जाता है / ईश्वर और कर्मवाद जैनदर्शन का यह स्पष्ट मन्तव्य है कि जीव स्वयं जैसा कर्म करता है वैसा ही उसे फल प्राप्त होता है / '1* न्यायदर्शन' 11 की तरह वह कर्म फल का नियन्ता ईश्वर को नहीं मानता। कर्मफल का नियमन करने के लिए ईश्वर की आवश्यकता नहीं है। कर्म-परमाणुओं में जीवात्मा के सम्बन्ध से एक विशिष्ट परिणाम समुत्पन्न होता है / '12 जिससे वह द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, भव, गति, स्थिति, प्रति उदय के अनुकूल सामग्री से विपाक-प्रदर्शन में समर्थ होकर प्रात्मा के संस्कारों को मलिन करता है। उससे उनका फलोपभोग होता है। पीयुष और विष, पथ्य और अपथ्य भोजन में कुछ भी ज्ञान नहीं होता तथापि प्रात्मा का संयोग पाकर वे अपनी-अपनी प्रकृति के अनुकूल विपाक उत्पन्न करते हैं। वह बिना किसी प्रेरणा अथवा विना ज्ञान के अपना कार्य करते ही हैं। अपना प्रभाव डालते ही हैं / 13 कालोदायी अनगार ने भगवान् श्री महावीर से प्रश्न किया-भगवन् ! क्या जीवों के किये गये पाप कर्मों का परिपाक पापकारी होता है / भगवान ने उत्तर दिया-कालोदायी ! हाँ, होता है। कालोदायी ने पुन: जिज्ञासा व्यक्त की-भगवन् ! किस प्रकार होता है ? भगवान् ने रूपक की भाषा में समाधान करते हुए कहा-कालोदायी! जिस प्रकार कोई पुरुष मनोज्ञ, सम्यक् प्रकार से पका हुआ शुद्ध अष्टादश व्यंजनों से परिपूर्ण विषयुक्त भोजन करता है / वह भोजन आपातभद्र--खाते समय अच्छा होता है किन्तु ज्यों-ज्यों उसका परिणमन होता है त्यों-त्यों उसमें विकृति उत्पन्न होती है / वह परिणामभद्र नहीं होता। इसी प्रकार प्राणातिपात आदि अठारह प्रकार के पापकर्म आपातभद्र और परिणाम-अभद्र होते हैं / कालोदायी, इसी प्रकार पापकर्म पाप-विपाक वाले होते हैं। 110. उत्तराध्ययन सूत्र 20137 111. (क) न्यायदर्शन सूत्र 411 (ख) गोतमसूत्र प्र. 4 / प्रा. 1, मू. 21 112. भगवती 710 113. भगवती 7.10 [ 39] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org