________________ कालोदायी ने निवेदन किया-भगवन् ! क्या जीवों के किये हुए कल्याण-कर्मों का परिपाक कल्याणकारी होता है ? भगवान् ने कहा-हाँ होता है / कालोदायी ने पुनः प्रश्न किया-भगवन् ! कैसे होता है ? भगवान ने कहा—कालोदायी ! प्रणातिपातविरति यावत् मिथ्यादर्शनशल्य से विरति आपातभद्र प्रतीत नहीं होती, पर परिणामभद्र होती है / इसी प्रकार हे कालोदायी ! कल्याणकम भी कल्याणविपाक वाले होते हैं। जैसे गणित करने वाली मशोन जड़ होने पर भी अंक गिनने में भूल नहीं करती वैसे ही कर्म भी जड़ होने पर भी फल देने में भूल नहीं करता। उसके लिए ईश्वर को नियंता मानने की आवश्यकता नहीं है। आखिर ईश्वर वही फल प्रदान करेगा जैसे जीव के कर्म होंगे, कर्म के विपरीत वह कुछ भी देने में समर्थ नहीं होगा। इस प्रकार एक ओर ईश्वर को सर्वशक्तिमान् मानना और दूसरी ओर उसे अणुमात्र भी परिवर्तन का अधिकार न देना वस्तुतः ईश्वर का उपहास है। इससे यह भी सिद्ध है कि कर्म की शक्ति ईश्वर से भी अधिक है और ईश्वर भी उसके अधीन ही कार्य करता है। दूसरी दृष्टि से कर्म में भी कुछ करने-धरने की शक्ति नहीं माननी होगी, क्योंकि वह ईश्वर के सहारे ही अपना फल दे सकता है। इस प्रकार दोनों एक दूसरे के अधीन हो जाएंगे। इससे तो यही तर्कसंगत है कि कर्म को ही अपना फल देने वाला स्वीकार किया जाय। इससे ईश्वर का ईश्वरत्व भी अक्षुण्ण रहेगा और कम वाद के सिद्धान्त में भी किसी प्रकार की बाधा समुपस्थित नहीं होगी। जैन संस्कृति की चिन्तनधारा प्रस्तुत कथन का ही समर्थन करती है। कर्म का संविभाग नहीं वैदिकदर्शन का यह मन्तव्य है कि आत्मा सर्वशक्तिमान ईश्वर के हाथ की कठपुतली है। उसमें स्वयं कुछ भी कार्य करने की क्षमता नहीं है / स्वर्ग और नरक में भेजने वाला, सुख और दुःख को देने वाला ईश्वर है / ईश्वर की प्रेरणा से ही जीव स्वर्ग और नरक में जाता है।१४ ___ जैन-दर्शन के कर्म सिद्धान्त ने प्रस्तुत कथन का खण्डन करते हुए कहा है-ईश्वर किसी का उत्थान और पतन करने वाला नहीं है। वह तो वीतराग है। प्रात्मा ही अपना उत्थान और पतन करता है / जब आत्मा स्वभाव-दशा में रमण करता है तब उत्थान करता है और जब विभाव-दशा में रमण करता है तब उसका पतन होता है। विभावदशा में रमण करने वाला प्रात्मा ही वैतरणी नदी और कूटशाल्मली वृक्ष है और स्वभाव-दशा में रमण करने वाला प्रात्मा कामधेनु और नन्दन वन है / 15 यह आत्मा सुख और दुःख का कर्ता भोक्ता स्वयं ही है। शुभ मार्ग पर चलने वाला आत्मा अपना मित्र है और अशुभ मार्ग पर चलने वाला आत्मा स्वयं ही अपना शत्रु है / "" 114. महाभारत वनपर्व भ. 3, श्लोक 28 115. उत्तराध्ययन 20136 116. उत्तराध्ययन 20137 [40] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org