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________________ जैनदर्शन का यह स्पष्ट उद्घोष है कि जो भी सुख और दुःख प्राप्त हो रहा है उसका निर्माता आत्मा स्वयं ही है। जैसा खात्मा कर्म करेगा वैसा ही उसे फल भोगना पड़ेगा / 17 वैदिकदर्शन और बौद्ध दर्शन की तरह वह कर्म फल के संविभाग में विश्वास नहीं करता / विश्वास ही नहीं अपितु उस विचारधारा का खण्डन भी करता है / 18 एक व्यक्ति का कम दूसरे व्यक्ति में विभक्त नहीं किया जा सकता। यदि विभाग को स्वीकार किया जायेगा तो पुरुषार्थ और साधना का मूल्य ही क्या है ? पाप-पुण्य करेगा कोई और भोगेगा कोई और / अतः यह सिद्धान्त युक्ति-युक्त नहीं है। कर्म का कार्य कर्म का मुख्य कार्य है-प्रात्मा को संसार में आबद्ध रखना / जब तक कम-बंध की परम्परा का प्रवाह प्रवहमान रहता है तब तक यात्मा मुक्त नहीं बन सकता। यह कर्म का सामान्य कार्य है / विशेष रूप से देखा जाय तो भिन्न-भिन्न कर्मों के भिन्न-भिन्न कार्य हैं। जितने कर्म हैं उतने ही कार्य हैं। पाठ कर्म जैन कर्मशास्त्र की दृष्टि से कर्म की पाठ मूल प्रकृतियाँ हैं, जो प्राणी को विभिन्न प्रकार के अनुकूल और प्रतिकूल फल प्रदान करती हैं। उनके नाम ये हैं-(१) ज्ञानावरण, (2) दर्शनावरण, (3) वेदनीय, (4) मोहनीय, (5) अायु, (6) नाम, (7) गोत्र (8) और अन्तराय / '2 इन पाठ कर्म-प्रकृतियों के भी दो अवान्तर भेद हैं। इनमें चार घाती हैं और चार प्रघाती हैं / (1) ज्ञानावरण, (2) दर्शनावरण, (3) मोहनीय, (4) अन्तराय ये चार घाती हैं।" (1) वेदनीय, (2) आयु, (3) नाम, (4) गोत्र-ये अघाती हैं / 122 जो कम प्रात्मा से बंधकर उसके स्वरूप का या उसके स्वाभाविक गुणों का घात करते हैं वे घाती कम हैं। इनकी अनुभाग-शक्ति का सीधा असर प्रात्मा के ज्ञान प्रादि गुणों पर होता है / इनसे गुणविकास अवरुद्ध होता है। जैसे बादल सूर्य के चमचमाते प्रकाश को प्राच्छादित कर देता है। उसकी रश्मियों को बाहर नहीं आने देता वैसे ही घाती कर्म श्रात्मा के मुख्य गुण (1) अनन्तज्ञान, (2) अनन्तदर्शन, (3) अनन्तसुख, (4) और अनन्त वीर्य गुणों को प्रकट नहीं होने देता। ज्ञानदर्शनावरणीय कम आत्मा में अनन्त ज्ञान-दर्शन शक्ति के प्रादुर्भाव को रोकते हैं। मोहनीय कम आत्मा के सम्यक् श्रद्धा और सम्यक् चारित्र गुण का अवरोध करता है जिससे प्रात्मा को अनन्त सुख 117. उत्तराध्ययन 4 / 4 118. प्रात्ममीमांसा-पं. दलसुख मालवणिया पृ. 131 119. द्वात्रिशिका, प्राचार्य अमितगति 30-31 120. (क) उत्तराध्ययन 33 / 2-3 (ख) स्थानाङ्ग 8 // 3 // 576 (ग) प्रज्ञापना 2331 (घ) भगवती 5 / 9 / पृ. 453 121. (क) पंचाध्यायी 2 / 998 (ख) गोमटसार-कर्मकाण्ड 9 122. पंचाध्यायी 1999 [ 41] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003479
Book TitleAgam 11 Ang 11 Vipak Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages214
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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