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________________ प्राप्त नहीं होता। अन्तराय कम आत्मा की अनन्तवीर्य शक्ति आदि का प्रतिघात करता है जिससे आत्मा अपनी अनन्त विराट् शक्ति का विकास नहीं कर पाता। इस प्रकार घाती-कर्म आत्मा के विभिन्न गुणों का घात करते हैं। जो कर्म आत्मा के निजगुण का घात नहीं कर केवल प्रात्मा के प्रतिजीवी गुणों का घात करता है वह अघाती कम है। अघाती कर्मों का सीधा सम्बन्ध पौद्गलिक द्रव्यों से होता है। इनकी अनुभाग शक्ति जीव के गुणों पर सीधा असर नहीं करती। अघाती कर्मों के उदय से आत्मा का पौद्गलिक द्रव्यों से सम्बन्ध जड़ता है, जिससे आत्मा "अमूर्तोऽपि मूर्त इव" रहती है। उसे शरीर के कारागृह में बद्ध रहना पड़ता है। जो जीव के गुण (1) अव्याबाध सुख, (2) अटल अवगाह व (3) अमूर्तिकत्व और (4) अगुरुलघुभाव को प्रकट नहीं होने देता। वेदनीय कर्म आत्मा के अव्याबाध सुख को अाच्छादित करता है। आयुष्यकम आत्मा की अटल अवगाहना, शाश्वत स्थिरता को नहीं होने देता / नाम कम आत्मा की अरूपी अवस्था को आवृत किये रहता है। गोत्र कम आत्मा के अगुरुलघुभाव को रोकता है। इस प्रकार अघाती कम अपना प्रभाव दिखाते हैं। जब घाती कर्म नष्ट हो जाते हैं तब आत्मा केवलज्ञान केवलदर्शन का धारक अरिहन्त बन जाता है और जब अधाती कर्म नष्ट हो जाते हैं तब विदेह सिद्ध बुद्ध और मुक्त हो जाता है। आठों कर्मों की अवान्तर अनेक उत्तर प्रकृतियाँ हैं। विस्तार भय से हम उन सभी का यहाँ पर निरूपण नहीं कर रहे हैं / कर्मफल की तीव्रता-मन्दता कर्म फल की तीव्रता और मन्दता का मूल आधार तन्निमित्तक कषायों की तीव्रता और मन्दता है / कषायों की तीव्रता जिस प्राणी में जितनी अधिक होगी उतना ही अशुभ कर्म प्रबल होगा और कषायों की मन्दता जिस प्राणी में जितनी अधिक होगी उसके पुण्य कम उतने ही प्रबल होंगे। कों के प्रदेशः विभाजन प्राणी मानसिक वाचिक और कायिक क्रियाओं द्वारा जिन कर्मप्रदेशों का संग्रह करता है वे प्रदेश नाना रूपों में विभक्त होकर आत्मा के साथ बद्ध हो जाते हैं / आठ कर्मों में आयु कर्म को सबसे कम हिस्सा प्राप्त होता है / नाम और गोत्र दोनों का हिस्सा बराबर होता है / उससे कुछ अधिक भाग ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तराय कर्मों को प्राप्त होता है। इन तीनों का हिस्सा समान रहता है। उससे अधिक भाग मोहनीय कर्म को मिलता है / सबसे अधिक भाग वेदनीय कम को मिलता है। इन प्रदेशों का पुनः उत्तर-प्रकृतियों में विभाजन होता है। प्रत्येक प्रकार के बंधे हुए कर्म के प्रदेशों की न्यूनता व अधिकता का यही मूल आधार है / कर्मबन्ध लोक में ऐसा कोई स्थान नहीं, जहाँ कर्म वर्गणा के पुद्गल न हों। प्राणी मानसिक, वाचिक और कायिक प्रवृत्ति करता है और कषाय के उत्ताप से उत्तप्त होता है / अत: वह कर्म योग्य-पुद्गलों को सर्व दिशाओं से ग्रहण करता है / प्रागमों में स्पष्ट निर्देश है कि एकेन्द्रिय जीव व्याघात न होने पर छहों दिशाओं से कर्म ग्रहण करते हैं, व्याघात होने पर कभी तीन कभी चार और कभी पांच [ 42 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003479
Book TitleAgam 11 Ang 11 Vipak Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages214
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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