________________ दिशात्रों से ग्रहण करते हैं किन्तु शेष जीव नियम से सर्व-दिशाओं से ग्रहण करते हैं / '23 किन्तु क्षेत्र के सम्बन्ध में यह मर्यादा है कि जिस क्षेत्र में वह स्थित है उसी क्षेत्र में स्थित कर्मयोग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है / अन्यत्र स्थित पुद्गलों को नहीं 124 / यह भी विस्मरण नहीं होना चाहिए कि जितनी योगों की चंचलता में तरतमता होगी उसी के अनुसार न्यूनाधिक रूप में जीव कर्म पुद्गलों को ग्रहण करेगा / योगों की प्रवृत्ति मन्द होगी तो परमाणुओं की संख्या भी कम होगी / आगमिक भाषा में इसे ही प्रदेश-बंध कहते हैं। दूसरे शब्दों में कहा जाय तो आत्मा के असंख्यात प्रदेश हैं। उन प्रदेशों में -एक प्रदेश पर अनन्तानन्त कम-प्रदेशों का बन्ध होना प्रदेश-बन्ध है / अर्थात् जीव के प्रदेशों और कम-पुद्गला के प्रदेशों का परस्पर बद्ध हो जाना प्रदेश-बन्ध है। 125 गणधर गौतम ने महावीर से पूछा-भगवन् ! क्या जीव और पुद्गल अन्योन्य-एक दूसरे से बद्ध, एक दूसरे से स्पृष्ट,एक-दूसरे में अवगाढ, एक दूसरे में स्नेह-प्रतिबद्ध हैं और एक दूसरे में एकमेक होकर रहते हैं ? उत्तर में महावीर ने कहा-हे गौतम ! हाँ रहते हैं / हे भगवन् ! ऐसा किस हेतु से कहते हैं ? हे गौतम ! जैसे एक ह्रद हो, जल से पूर्ण, जल से किनारे तक भरा हुआ, जल से लबालब, जल से उपर उठा हुआ, और भरे हुए घड़े की तरह स्थित / अब यदि कोई पुरुष उस हद में एक बड़ी, सौ छेदों वालों नाव छोड़े तो हे गौतम ! वह नाव उन आस्रव-द्वारों-छिद्रों द्वारा भरती-भरती जल से पूर्ण, ऊपर तक भरी हुई, बढते हुए जल से ढंकी हुई होकर, भरे घड़े की तरह होगी या नहीं ? हाँ भगवन् ! होगी। हे गौतम / इसी हेतु से मैं कहता हूँ कि जीव और पुद्गल परस्पर बद्ध, स्पृष्ट अवगाढ और प्रतिबद्ध हैं और परस्पर एकमेक होकर रहते हैं / 126 यही आत्म-प्रदेशों और कर्म-पुद्गलों का सम्बन्ध प्रदेशबंध है। प्रकृतिबन्ध योगों की प्रवृत्ति द्वारा ग्रहण किये गये कर्म-परमाणु ज्ञान को प्रावृत करना, दर्शन को आच्छन्न करना, सुख, दुःख का अनुभव कराना आदि विभिन्न प्रकृतियों के रूप में परिणत होते हैं। 123. उत्तराध्ययन 32018 (ख) भगवती 174, 124. विशेषावश्यक भाष्य गा. 1941, पृ. 117 125. (क) भगवती 1 / 4 / 40 वृत्ति (ख) नवतत्त्व प्रकरण गा. 71 की वृत्ति (ग) सप्ततत्त्वप्रकरण अ. 4, देवानन्दसूरिकृत 126. भगवती 126 [ 43 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org