________________ प्रथम अध्ययन | [ 19 कास, ज्वर, दाह, कुक्षिशूल, भगन्दर, अर्श, बवासीर, अजीर्ण, दृष्टिशूल, मस्तक-शूल, अरोचक, अक्षिवेदना, कर्णवेदना, खुजली, जलोदर, और कुष्टरोग-कोढ़। तदनन्तर उक्त सोलह प्रकार के भयंकर रोगों से खेद को प्राप्त वह एकादि नामक प्रान्ताधिपति सेवकों को बुलाता है और बुलाकर इस प्रकार कहता है--"देवानुप्रियो ! तुम जाओ और विजयवर्द्धमान खेट के श्रगाटक (त्रिकोणमार्ग) त्रिक-त्रिपथ (जहाँ तीन मार्ग मिलते हों) चतुष्क-चतुष्पथ (जहाँ चार मार्ग एकत्रित होते हों) चत्वर (जहाँ चार से अधिक मार्गों का संगम होता हो) महापथराजमार्ग और साधारण मार्ग पर जाकर अत्यन्त ऊँचे स्वरों से इस तरह घोषणा करो-हे देवानप्रियो ! एकादि प्रान्तपति के शरीर में श्वास, कास, ज्वर यावत् कोढ़ नामक 16 भयङ्कर रोगातंक उत्पन्न हुए हैं। यदि कोई वैद्य या वैद्यपुत्र, ज्ञायक या ज्ञायक-पुत्र, चिकित्सक या चिकित्सक-पुत्र उन सोलह रोगातंकों में से किसी एक भी रोगातंक को उपशान्त करे तो एकादि राष्ट्रकूट उसको बहुत सा धन प्रदान करेगा !' इस प्रकार दो तीन बार उद्घोषणा करके मेरी इस प्राज्ञा के यथार्थ पालन की मुझे सूचना दो।" उन कौटुम्बिक पुरुषों-सेवकों ने आदेशानुसार कार्य सम्पन्न करके उसे सूचना दी। २३-तए णं से विजयवद्धमाणे खेडे इमं एयारूव उग्घोसणं सोच्चा निसम्म वहवे वेज्जा य जाव' सत्थकोसहत्थगया सहितो सहितो गिहेहितो पडिनिक्खमन्ति, पडिनिक्खमित्ता विजयवद्धमाणस्स खेडस्स मन्झ मज्झेणं जेणेव इक्काई रठ्ठडस्स गिहे तेणेव उवागच्छन्ति, उवागच्छित्ता इक्काइरट्ठकूडस्स सरीरगं परामुसंति, परामुसित्ता तेसि रोगाणं निदाणं पुच्छति, पुच्छित्ता इक्काइरहकूडस्स बहूहि प्रभंगेहि य उम्बट्टणेहि य सिणेहपाणेहि य वमणेहि य विरेयणेहि य सेयणाहि य अवदहणाहि य प्रवण्हाणेहि य प्रणवासणाहिं य वस्थिकम्मेहि य निरूहेहि य सिरावेहेहि य तच्छणेहि य पच्छणेहि य सिरोवत्थीहि य तप्पणाहि य पुडपागेहि य छल्लीहि य मूलेहि य फलेहि य बीएहि य सोलियाहि य गुलियाहि य प्रोसहेहि य भेसज्जेहि य इच्छंति तेसि सोलसण्हं रोगायंकाणं एगमवि रोगायंकं उवसामित्तए, नो चेव णं संचाएंति उसामित्तए / तए णं ते बहवे वेज्जा य वेज्जपुत्ता य जाणया य जाणयपुत्ता य तेगिच्छिया य तेगिच्छियपुत्ता य जाहे नो संचाएंति तेसि सोलसण्हं रोगायंकाणं एगमवि रोगायंकं उवसामित्तए, ताहे संता तंता परितंता जामेव दिसि पाउन्भूया तामेव दिसि पडिगया। २३-तदनन्तर उस विजयवर्द्धमान खेट में इस प्रकार की उद्घोषणा को सुनकर तथा अवधारण करके अनेक वैद्य, वैद्यपुत्र, ज्ञायक, ज्ञायकपुत्र, चिकित्सक, चिकित्सकपुत्र अपने अपने शस्त्रकोष (औजार रखने की पेटी या थैली) को हाथ में लेकर अपने अपने घरों से निकलते हैं और निकलकर विजयवर्द्धमान नामक खेट के मध्यभाग से जाते हुए जहाँ एकादि प्रान्ताधिपति का घर था, वहाँ पर आते हैं / आकर एकादि राष्ट्रकूट के शरीर का संस्पर्श करते हैं, संस्पर्श करके निदान (रोगों के मूलकारण)की पृच्छा करते हैं और पूछकर के एकादि राष्ट्रकूट के इन सोलह रोगातंकों में से किसी एक रोगातंक को शान्त करने के लिये अनेक प्रकार के अभ्यंगन (मालिश), उद्वर्तन (उवटन-बरणा वगैरह मलने) स्नेहपान (घृतादि स्निग्ध पदार्थों के पान कराने), वमन (उल्टी कराने), विरेचन (जुलाब अथवा अधोद्वार से मल को निकालने), स्वेदन (पसीने), अवदहन (गर्म लोहे के कोश आदि से चर्म पर दागने), 1. देखिए ऊपर का सूत्र 111:122 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org