________________ 20] [ विपाकसूत्र--प्रथम श्रु तस्कन्ध अवस्नान (चिकनाहट दूर करने के लिए अनेक-विध द्रव्यों से संस्कारित जल से स्नान कराने), अनुवासन (गुदा द्वारा पेट में तैलादि के प्रवेश कराने), निरूह (ओषधियों को डालकर पकाये गए तैल के प्रयोगविरेचन विशेष), वस्तिकर्म (गुदा में बत्ती आदि के प्रक्षेप करने), शिरोवेध (नाड़ी के वेधन करने), तक्षण (क्षुरा, चाकू आदि सामान्य शस्त्रों द्वारा कर्तन-काटना), प्रतक्षण (विशेष रूप से कर्तन-बारीक शस्त्रों से त्वचा विदारण करने) शिरोवस्ति (सिर में चर्म कोश बाँधकर उसमें औषधि-द्रव्य-संस्कृत तैलादि को पूर्ण कराने-भराने) तर्पण (स्निग्ध पदार्थों से शरीर को वृहण-तृप्त करने) पुटपाक-- (अमुक रस का पुट देकर पकाई हुई औषध) छल्ली (छाल) मूलकन्द (मूली, गाजर, पाल आदि जमीकन्द) शिलिका (चिरायता आदि औषध) गुटिका-अनेक द्रव्यों को महीन पीसकर औषध के रस की भावना आदि से बनाई गई गोलिये) औषध (एक द्रव्यनिर्मित दवा) और भेषज्य (अनेक द्रव्यसंयोजित दवा) आदि के प्रयोग से प्रयत्न करते हैं अर्थात्-इन पूर्वोक्त साधनों का रोगोपशान्ति के लिए उपयोग करते हैं परन्तु उपर्युक्त अनेक प्रकार के प्रयोगात्मक उपचारों से वे इन सोलह रोगों में से किसी एक रोग को भी उपशान्त करने में समर्थ न हो सके ! जब उन वैद्यों व वैद्यपुत्रादि से उन 16 रोगान्तकों में से एक भी रोग का उपशमन न हो सका तब वे वैद्य व वैद्यपुत्रादि श्रान्त (शारीरिक खेद) तान्त (मानसिक खेद) तथा परितान्त (शारीरिक व मानसिक खेद) से खेदित हुए जिधर से पाये थे उधर ही चल दिए। इक्काई को मत्यु :-मृगापुत्र का वर्तमान भव २४--तए णं इक्काई रहकूडे वेज्ज-पडियाइक्खिए परियारगपरिच्चत्ते निविण्णोसहभेसज्जे सोलहरोगायंकेहि अभिभूए समाणे रज्जे य रठे य जाव (कोसे य कोट्ठागारे य बले य वाहणे य पुरे य) अन्तउरे य मुच्छिए रज्जं च रट्टे च प्रासाएमाणे पत्थेमाणे पोहमाणे अभिलसमाणे अट्टदुहट्टक्सट्टे अड्ढाइजाई वाससयाई परमाउयं पालइत्ता कालमासे कालं किच्चा इमोसे रयणप्पभाए पुढवीए उक्कोसेणं सागरोवमट्टिइएसु नेरइएसु नेरइयत्ताए उववन्ने / से शं तो प्रणंतरं उबट्टित्ता इहेव मियग्गामे नयरे विजयस्स खत्तियस्स मियाए देवीए कुच्छिसि पुत्तत्ताए उववन्ने ! २४-इस प्रकार वैद्यों के द्वारा प्रत्याख्यात होकर (अर्थात् इन रोगों का प्रतीकार और उपचार हमसे सम्भव नहीं है, इस तरह कहे जाने पर) सेवकों द्वारा परित्यक्त होकर औषध और भैषज्य से निविण्ण (उदासीन) विरक्त-उपरत, सोलह रोगातंकों से परेशान, राज्य, राष्ट्र-देश, यावत् (कोष, भंडार, बल, वाहन, पुर तथा) अन्तःपुर-रणवास में मूछित-पासक्त एवं राज्य व राष्ट्र का प्रास्वादन प्रार्थना स्पृहा-इच्छा और अभिलाषा करता हुआ वह एकादि प्रान्तपति आर्त-मनोव्यथा से व्यथित, दुखार्त-शारीरिक पीड़ा से पीड़ित और वशार्त-इन्द्रियाधीन होने से परतन्त्र–स्वाधीनता रहित जीवन व्यतीत करके 250 वर्ष की सम्पूर्ण आयु को भोगकर यथासमय काल करके इस रत्नप्रभा पृथिवी-प्रथम नरक में उत्कृष्ट एक सागरोपम की स्थिति वाले नारकों में नारकरूप से उत्पन्न हुआ। तदनन्तर वह एकादि का जीव भवस्थिति संपूर्ण होने पर नरक से निकलते ही इस मगाग्राम नगर में विजय क्षत्रिय की मगादेवी नाम की रानी की कुक्षि में पुत्ररूप में उत्पन्न हुआ। २५–तए णं तीसे मियादेवीए सरीरे वेयणा पाउम्भूया, उज्जला जाव दुरहियासा / जप्पभिई च णं मियापुत्ते दारए मियाए देवीए कुच्छिसि गम्भत्ताए उववन्ने, तप्पभिई च णं मियादेवी विजयस्स खत्तियस्स अणिट्ठा प्रकता प्रप्पिया प्रमणुन्ना अमणामा जाया यावि होत्था / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org