________________ प्रथम अध्ययन ] [21 २५–मगादेवी के उदर में उत्पन्न होने पर मगादेवी के शरीर में उज्ज्वल यावत् ज्वलन्तउत्कट व जाज्वल्यमान वेदना उत्पन्न हुई-तीव्रतर वेदना का प्रादुर्भाव हुआ। जिस दिन से मृगापुत्र बालक मृगादेवी के उदर में गर्भरूप से उत्पन्न हुआ, तबसे लेकर वह मृगादेवी विजय नामक क्षत्रिय को अनिष्ट, अमनोहर, अप्रिय, अमनोज्ञ-असुन्दर-मन को न भाने वाली—मन से उतरी हुई, अप्रिय हो गयी। २६-तए णं तीसे मियाए देवीए अन्नया कयाइ पुन्वरत्तावरत्तकालसमयंसि कुडुबजागरियाए जागरमाणीए इमे एयारूवे अज्झथिए जाव' समपज्जित्या--"एवं खलु अहं विजयस्स खत्तियस्स पुटिव इट्ठा कंता पिया मणण्णा मणामा धेज्जा विसासिया अणुमया प्रासी। जप्पमिइंच णं मम इमे गम्भे च्छिसि गमत्ताए उववन्न, तप्पभिई च णं अहं विजस्स खत्तियस्स अणिटा जाव प्रमणामा जाया यावि होत्था / नेच्छइ णं विजए खत्तिए मम नाम व गोयं वा गिण्हित्तए वा, किमंगपुण दंसणं वा परिभोग वा। तं सेयं खलु ममं एयं गभं बहूहि गभसाडणाहि य पाडणाहि य गालणाहि य मारणाहि य साडित्तए वा पाडित्तए वा गालित्तए वा मारित्तए वा एवं संपेहेइ, संपेहित्ता बहूणि खाराणि य कडुयाणि य तवराणि य गब्भसाडणाणि य खायमाणी य पोयमाणी य इच्छइ तं गभं साडित्तए-४ नो चेव णं से गम्भे सडइ वा-४ / तए णं सा मियादेवी जाहे नो संचाएइ तं गम्भं साडित्तए वा-४ ताहे संता तंता परिवंता अकामिया असयंवसा तं गम्भं दुहं-दुहेणं परिवहइ / 26-- तदनन्तर किसी काल में मध्यरात्रि के समय कुटुम्बचिन्ता से जागती हुई उस मृगादेवी के हृदय में यह अध्यवसाय-विचार उत्पन्न हुआ कि मैं पहले तो विजय क्षत्रिय को इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ और अत्यन्त मनगमती, ध्येय, चिन्तनीय, विश्वसनीय, व सम्माननीय थी परन्तु जबसे मेरी कुक्षि में यह गर्भस्थ जीव गर्भ के रूप में उत्पन्न हुआ तबसे विजय क्षत्रिय को मैं अप्रिय यावत् मन से अग्राह्य हो गई हूँ। इस समय विजय क्षत्रिय मेरे नाम तथा गोत्र को ग्रहण करना-- अरे स्मरण करना भी नहीं चाहते ! तो फिर दर्शन व परिभोग-भोगविलास की तो बात ही क्या है ? अतः मेरे लिये यही श्रेयस्कर है कि मैं इस गर्भ को अनेक प्रकार की शातना (गर्भ को खण्ड-खण्ड कर गिरा देने वाले प्रयोग) पातत। (अखण्ड रूप से गर्भ को गिराने रूप क्रियानों से) ग को द्रवीभूत करके गिराने रूप उपायों से) व मारणा (मारने वाले प्रयोग) से नष्ट कर दूं। इस प्रकार वह शातना, पातना, गालना और मारणा के लिये विचार करती है और विचार करके गर्भपात के लिये गर्भ को गिरा देने वाली क्षारयुक्त (खारी), कड़वी, कसैली, औषधियों का भक्षण तथा पान करती हुई उस गर्भ के शातन, पातन, गालन व मारण करने की इच्छा करती है। परन्तु वह गर्भ उपर्युक्त सभी उपायों से भी शातन, पातन, गालन व मारण रूप नाश को प्राप्त नहीं हुआ। तब वह मृगादेवी शरीर से श्रान्त, मन से दु:खित तथा शरीर और मन से खिन्न होती हुई इच्छा न रहते हुए भी विवशता के कारण अत्यन्त दु:ख के साथ गर्भ वहन करने लगी। २७–तस्स णं दारगस्स गभगयस्स चेव अट्ट नालीप्रो अभितरप्पवहायो, अट्ट नालीमो बाहिरप्यवहायो, अट्ठ पूयध्यवहाओ, अट्ट सोणियष्यवहानो, दुवे-दुवे कण्णंतरेसु, दुवे दुवे अच्छि-अंतरेसु, 1. देखिए सुत्र 121119 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org