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________________ 74 ] [विपाकसूत्र --प्रथम श्रु तस्कन्ध खारतेल्लं पज्जेइ, अप्पेगइयाणं तेणं चेव अभिसेयगं करेइ / अप्पेगइए उत्ताणए पाडेइ, पाडित्ता, प्रासमुत्तं पज्जेइ, अप्पेगइए हत्यिमुत्तं पज्जेइ, जाव एलमुत्तं पज्जेइ। अप्पेगइए हेट्ठामहे पाडेइ, छडछडस्प्स' वम्भावेइ, वम्मावित्ता अप्पेगइए तेणं चेव प्रोवोल दलयइ। अप्पेगइए हत्थंयाई बन्धावेइ, अप्पेगइए पायंदुए बन्धावेइ, अप्पेगइए हडिबन्धणं करेइ, अप्पेगइए नियडबन्धणं करेइ, अप्पेगइए संकोडियमोडिययं करेइ, अप्पेगइए संकलबंधणं करेइ। अप्पेगइए हछिन्नए करेइ जाव सत्थोवाडियं करेइ, अप्पेग इए वेणुलयाहि य जाव वायरासीहि य हणावेइ / अप्पेगइए उत्ताणए कारवेइ, कारेत्ता उरे सिल दलावेइ, तो लउड छुहावेइ, छुहावित्ता पुरिसेहि उक्कंपावेइ / अप्पेगइए तंतीहि य जाव सुत्तरज्जुहि य हत्थेसु पाएसु य बंधावेइ, अगड सि पोचूलयालगं पज्जेइ, अप्पेगइए असिपत्तेहि य जाव कलंबचीरपत्तेहि य पच्छावेइ, पच्छावेत्ता खारतेल्लेणं अभिगावेइ / अप्पेगइए निडालेसु य अवसु य कोप्परेसु य जाणुसु य खलुएसु य लोहकोलए य क डसकराम्रो य दवावेइ, अलिए भंजावेइ / अप्पेगइए सूईओ डंभणाणि य हत्थंगुलियासु य पायेंगुलियासु य कोट्टिल्लएहि य पाउडावेइ, प्राउडावेत्ता भूमि कंडूयावेइ / अप्पेगइए सत्थेहि य जाव (अप्पेगइए पिप्पलेहि ए, अप्पेगइए कुहाडेहि य, अप्पेगइए) नहच्छेयहि य अंगं पच्छावेइ, दमेहि य कुसेहि य प्रोल्लबद्ध हि य वेढावेइ, वेढावेत्ता प्रायवंसि दलयइ, दलइत्ता सुक्के समाणे चडचडस्स उम्पावेइ ! तदनन्तर वह दुर्योधन चारपालक सिंहरथ राजा के अनेक चोर, परस्त्रीलम्पट, ग्रन्थि भेदकगांठकतरों, राजा के अपकारी-दश्मनों, ऋणधारक ऋण लेकर वापिस नहीं करने वालों, बालघातकों, विश्वासघातियों, जुआरियों और धूर्त पुरुषों को राजपुरुषों के द्वारा पकड़वाकर ऊर्ध्वमुख-सीधाचित्त गिराता है और गिराकर लोहे के दण्डे से मुख को खोलता है और खोलकर कितनेएक को तप्त तांबा पिलाता है, कितनेएक को रांगा, सीसक, चूर्णादिमिश्रित जल अथवा कलकल करता हुआ अत्यन्त उष्ण जल और क्षारयुक्त तैल पिलाता है तथा कितनों का इन्हीं से अभिषेक कराता है। कितनों को ऊर्ध्वमुख गिराकर उन्हें अश्वमूत्र हस्तिमूत्र यावत् भेड़ों का मूत्र पिलाता है / कितनों को अधोमुख गिराकर छल छल शब्द पूर्वक (छड़-छड़ शब्द पूर्वक) वमन कराता है और कितनों को उसी के द्वारा पीड़ा देता है। कितनों को हथकड़ियों बेड़ियों से, हडिबन्धनों से व निगडबन्धनों बद्ध करता है। कितनों के शरीर को सिकोड़ता व मरोड़ता है। कितनों को सांकलों से बांधता है, तथा कितनों का हस्तच्छेदन यावत् शस्त्रों से चीरता-फाड़ता है। कितनों को वेणुलताओं यावत् वृक्षत्वचा के चाबुकों से पिटवाता है। 1. इस पद के स्थान में 'धलघलस्स तथा बलस्स' पाठ भी प्राता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003479
Book TitleAgam 11 Ang 11 Vipak Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages214
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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