________________ 66 ] [विपाकसूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध ४-तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे समोसरिए / तेणं कालेणं तेणं समएणं भगवं गोयमे तहेव जाव' रायमग्गमोगाढे। तहेव पासइ हत्थी, प्रासे, पुरिसमझे पुरिसं / चिता / तहेव पुच्छइ, पुत्वभवं / भगवं वागरेइ / ४-उस काल तथा उस समय में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी कौशम्बी नगरी के बाहर चन्द्रावतरण उद्यान में पधारे। उस समय भगवान् गौतम स्वामी पूर्ववत् कौशाम्बी नगरी में भिक्षार्थ गए / और लौटते हुए राजमार्ग में पधारे। वहाँ हाथियों, घोड़ों और बहुसंख्यक पुरुषों को तथा उन पुरुषों के बीच एक बध्य पुरुष को देखा। उनको देखकर मन में विचार करते हैं और स्वस्थान पर पाकर भगवान् से उसके पूर्व-भव के सम्बन्ध में पृच्छा करते हैं। भगवान् उसके पूर्वभव का इस प्रकार वर्णन करते हैं-- पूर्वभव ५-एवं खलु जम्बू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जम्बुद्दीवे दीवे भारहे वासे सव्वोभद्दे नाम नयरे होत्था, रिद्धत्यिमियसमिद्ध / तत्थ णं सवप्रोभद्दे नयरे जियसत्तू राया। तस्स णं जियसत्तुस्स रन्नो महेसरदत्त नामं पुरोहिए होत्था, रिउव्वेय-यजुव्वेय-सामवेय-अथव्वणवेयकुसले यावि होत्था। ५---हे गौतम ! उस काल और उस समय में इसी जम्बूद्वीप नामक द्वीप के अन्तर्गत भरतक्षेत्र में सर्वतोभद्र नाम का एक भवनादि के आधिक्य से युक्त पान्तरिक व बाह्य उपद्रवों से मुक्त तथा धनधान्यादि से परिपूर्ण नगर था। उस सर्वतोभद्र नामक नगर में जितशत्रु नामक राजा राज्य करता था। उस जितशत्रु राजा का महेश्वरदत्त नाम का एक पुरोहित था जो ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद में कुशल था। ६-तए णं से महेसरदत्ते पुरोहिए जितसत्तुस्स रन्नो रज्जबलविवद्धणट्ठयए कल्लाकल्लि एगमेगं माहणदारयं, एममेगं खत्तियदारयं एगमेगं वइस्सदारयं, एगमेगं सुद्ददारयं गिण्हावेइ, गिण्हावेत्ता तेसि जीवंतगाणं चेव हिययउंडए गिण्हावेए गिण्हावेत्ता जियसत्तुस्स रन्नो संतिहोमं करे। तए णं से महेसरदत्ते पुरोहिए अदमी-चउद्दसीसु दुवे-दुवे माहणखत्तिय-वइस्स-सुद्ददारगे, चउण्हं मासाणं चत्तारि-चत्तारि, छण्हं मासाणं अट्ठ-अट्ठ संवच्छरस्स सोलस-सोलस / जाहे जाहे वि य णं जियसत्त राया परबलेण अभिजुजइ, ताहे ताहे वि य णं से महेसरदत्ते पुरोहिए अट्ठसयं माहणदारगाणं, अट्ठसयं खत्तियदारगाणं, अनुसयं वइस्सदारगाणं, अट्ठसयं सुद्ददारगाणं पुरिसेहि गिण्हावेइ, गिण्हावेत्ता जियसत्तुस्स रन्नो संतिहोम करेइ / तए णं से परबले खिप्पामेव विद्ध सिज्जइ वा पडिसेहिज्जइ बा। ६-महेश्वरदत्त पुरोहित जितशत्रु राजा के राज्य की एवं बल की वृद्धि के लिये प्रतिदिन एक-एक ब्राह्मण बालक, एक-एक क्षत्रिय बालक, एक-एक वैश्य बालक और एक-एक शूद्र बालक को पकड़वा लेता था और पकड़वाकर, जीते जी उनके हृदयों के मांसपिण्डों को ग्रहण करवाता१. द्वि. अ., सूत्र-६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org