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________________ 112] [ विपाकसूत्र--प्रथम श्रु तस्कन्ध ७-तदनन्तर महाराज विजयमित्र अश्व क्रीडा के निमित्त जाते हुए राजा वैश्रमणदत्त की भांति ही अञ्जुश्री को देखते हैं और अपने ही लिए उसे तेतलीपुत्र अमात्य की तरह मांगते हैं। यावत् वे अंजुश्री के साथ उन्नत प्रासादों में सानन्द विहरण करते हैं। ८-तए णं तीसे अंजए देवीए अन्नया कयाइ जोणिसूले पाउन्भूए यावि होत्था / तए णं से विजये राया, कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासी-गच्छह णं तुमं देवाणुप्पिया ! वद्धमाणपुरे नयरे सिंघाडग जाव एवं वयह–'एवं खलु, देवाणुप्पिया! विजयस्स रन्नो अंजए देवीए जोणिसूले पाउम्भूए ! जो णं इच्छइ वेज्जो वा वेज्जपुत्तो वा जाणुरो वा जाणुयपुत्तो वा तेगिच्छियो वा तेगिच्छियपुत्तो वा अंजूए देवीए जोणीसूले उवसामित्तए तस्स णं विजए राया विउलं अत्थसंपयाणं दलयइ / तए णं ते कोडुबियपुरिसा जाव उग्घोसेंति / ८-किसी समय अञ्जुश्री के शरीर में योनिशूल (योनि में होने वाली असह्य वेदना) नामक रोग का प्रादुर्भाव हो गया। यह देखकर विजय नरेश ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाकर कहा-'तुम लोग वर्धमानपुर नगर में जागो और जाकर वहां के शृगाटक-त्रिपथ, चतुष्पथ यावत् सामान्य मार्गों पर यह उद्घोषणा करो कि–देवी अञ्जुश्री को योनिशूल रोग उत्पन्न हो गया है। अत: जो कोई वैद्य या वैद्यपुत्र, जानकार या जानकार का पुत्र, चिकित्सक या उसका पुत्र उस रोग को उपशान्त कर देगा, राजा विजयमित्र उसे विपुल धन-सम्पत्ति प्रदान करेंगे।' कौटुम्बिक पुरुष राजाज्ञा से उक्त उद्घोषणा करते हैं। ___-तए णं ते बहवे वेज्जा वा 6 इमं एयारूवं उग्घोसणं सोच्चा निसम्म जेणेव विजये राया तेणेव उवागच्छन्ति, उवागच्छित्ता अंजए देवीए बहहिं उप्पत्तियाहि वेणइयाहि कम्मियाहिं पारिणामियाहि बुद्धोहि परिणामेमाणा इच्छन्ति अंजए देवीए जोणिसूलं उवसामित्तए, नो संचाएंति उक्सामित्तए / तए णं ते बहवे वेज्जा य 6 जाहे नो संचाएंति अंजए देवीए जोणिसूलं उक्सामित्तए ताहे संता, तंता परितंता जामेव दिसि पाउन्भूया तामेव दिसि पडिगया। तए णं सा अंजू देवी ताए वेयणाए अभिभूया समाणी सुक्का भुक्खा निम्मंसा कट्ठाई कलुणाई विस्सराई विलवइ। एवं खलु गोयमा ! अंजू देवी पुरा पोराणाणं जाव विहरइ / 8-- तदनन्तर (राजा की आज्ञा से अनुचरों के द्वारा की गयी) इस प्रकार की उद्घोषणा को सुनकर नगर के बहुत से अनुभवी वैद्य, वैद्यपुत्र आदि चिकित्सक विजयमित्र राजा के यहाँ आते हैं / अपनी औत्पत्तिकी, वैनयिकी, कार्मिकी और पारिणामिकी बुद्धियों के द्वारा परिणाम को प्राप्त कर अर्थात् निदान आदि द्वारा निर्णय करते हुए विविध प्रयोगों के द्वारा देवी अंजूश्री के योनिशूल को उपशान्त करने का प्रयत्न करते हैं, परन्तु उनके उपयोगों से अजश्री का योनिशूल शांत नहीं हो पाया / जब वे अनुभवी वैद्य आदि अंजूश्री के योनिशूल को शमन करने में विफल हो गये तब खिन्न, श्रान्त एवं हतोत्साह होकर जिधर से आये थे उधर ही चले गये। तत्पश्चात् देवी अंजश्री उस योनिशूलजन्य वेदना से अभिभूत (पीड़ित) हुई सूखने लगी, भूखी रहने लगी और मांस रहित होकर कष्ट-हेतुक, करुणोत्पादक और दीनतापूर्ण शब्दों में विलाप करती हुई समय-यापन करने लगी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003479
Book TitleAgam 11 Ang 11 Vipak Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages214
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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