________________ 34] [विपाकसूत्र–प्रथम श्रुतस्कन्ध १४-तत्पश्चात् (गोत्रास के युवक हो जाने पर) भीम कुटग्राह किसी समय कालधर्म (मृत्यु) को प्राप्त हुआ। तब गोत्रास बालक ने अपने मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धी और परिजनों से परिवत होकर रुदन, विलपन तथा प्राक्रन्दन करते हुए अपने पिता भीम कूटग्राह का दाहसंस्कार किया। अनेक लौकिक मृतक-क्रियाएँ की। तदनन्तर सुनन्द नामक राजा ने किसी समय स्वयमेव गोत्रास बालक को कूटग्राह के पद पर नियुक्त किया। गोत्रास भी (अपने पिता की ही भांति) महान् अधर्मी व दुष्प्रत्यानन्द (बड़ी कठिनता से प्रसन्न होने वाला) था। १५--तए णं से गोत्तासे दारए कडग्गाहिताए कल्लाकल्लि प्रद्धरत्तियकालसमयंसि एगे अबीए सन्नद्ध बद्धकवए जाव गहिया-उहप्पहरणे सयाओ गिहाप्रो निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता जेणेव गोमण्डवे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता बहूणं नगरगोरूवाणं सणाहाण य जाव' वियंगेइ, जेणेद सए गिहे तेणेव उवागए। तए णं से गोत्तासे कडग्गाहे तेहिं बहूहि गोमंसेहि य सोल्लेहि य जाव (तलिएहि य मज्जिएहि य परिसुक्केहि य लावणेहि य सुरं च 6 आसाएमाणे विसाएमाणे जाव विहरइ। तए णं से गोत्तासए कूडग्गाहे एयकम्मे एयप्पहाणे एयविज्जे एयसमायारे सुबहुं पावकम्मं समज्जिणित्ता पंचवाससयाई परमाउयं पालइत्ता अट्टदुहट्टोवगए कालमासे कालं किच्चा दोच्चाए पुढवीए उक्कोसं तिसागरोवमठिइएसु नेरइएसु नेरइयत्ताए उववन्ने / 15- उसके बाद वह गोत्रास कूटग्राह प्रतिदिन आधी रात्रि के समय सैनिक की तरह तैयार होकर कवच पहिनकर और शस्त्रास्त्रों को धारण कर अपने घर से निकलता / निकलकर गोमण्डप में जाता / वहाँ पर अनेक गौ आदि नागरिक पशुओं के अंङ्गोपाङ्गों को काटकर अपने घर आ जाता / आकर उन गौ आदि पशुओं के शूलपक्व तले, भुने, सूखे और नमकीन मांसों के साथ मदिरा आदि का आस्वादन, विस्वादन करता हुआ जीवनयापन करता। तदनन्तर वह गोत्रास कूटग्राह इस प्रकार के कर्मोंवाला, इस प्रकार के कार्यों में प्रधानता रखने वाला, इस प्रकार की पाप-विद्या को जानने वाला तथा ऐसे क्र र आचरणों वाला नाना प्रकार के पापकर्मों का उपार्जन कर पांच सौ वर्ष का पूरा आयुष्य भोगकर चिन्ता और दुःख से पीड़ित होकर मरणावसर में काल करके उत्कृष्ट तीन सागर की उत्कृष्ट स्थिति वाले दूसरे नरक में नारक रूप से उत्पन्न हुआ। १६-तए णं विजयमित्तस्स सस्थवाहस्स सुभद्दा नामं मारिया जानिदुया यावि होत्था / जाया जाया दारगा विणिहायमावज्जति / तए णं से गोत्तासे कूडग्गाहे दोच्चाए पुढवीए अणंतरं उध्वट्टित्ता इहेव वाणियगामे नयरे विजयमित्तस्स सत्थवाहस्स सुभद्दाए मारियाए कुच्छिसि पुत्तत्ताए उपवन्न / तए णं सा सुभद्दा सस्थवाही प्रनया कयाइ नवण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं दारगं पयाया। १६-विजयमित्र की सुभद्रा नाम की भार्या जातनिन्दुका (जन्म लेते ही मरने वाले बच्चों को जन्म देने वाली) थी। अतएव जन्म लेते ही उसके बालक विनाश को प्राप्त हो जाते (मर जाते) थे / तत्पश्चात् वह गोत्रास कूटनाह का जीव भी दूसरे नरक से निकलकर सीधा इसी वाणिजग्राम नगर के विजयमित्र सार्थवाह की सुभद्रा नाम की भार्या के उदर में पुत्ररूप से उत्पन्न हुा-गर्भ में 1. द्वि. अ. सूत्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org