________________ द्वितीय अध्ययन [35 आया। तदनन्तर किसी अन्य समय में नव मास परिपूर्ण होने पर सुभद्रा सार्थवाही ने पुत्र को जन्म दिया। १७–तए णं सा सुभद्रा सत्यवाही तं दारगं जायमेतयं चेव एगते उक्कुरुडियाए उज्झावेइ, उज्झावित्ता दोच्चंपि गिण्हावेइ गिहावित्ता अणुपुत्वेणं सारक्खेमाणी संगोवेमाणी संवड्ढेइ। तए णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो ठिइवडियं च चन्दसूरपासणियं च जागरियं च महया इड्ढीसक्कारसमुदएणं करेन्ति / तए णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो एक्कारसमे दिवसे निव्वत्ते, संपत्ते बारसमे दिवसे इममेयारूवं गोणं गुणनिष्फन्न नामधेज्जं करेन्ति-'जम्हा णं अम्हं इमे दारए जायमेत्तए चेव एगते उक्कुरुडियाए उज्झिए, तम्हा णं होउ अम्हं दारए उज्झिए नामेणं / तए णं से उज्झिए दारए पंचधाईपरिग्गहिए, तं जहा-खीरधाईए मज्जणधाईए मण्डणधाईए कोलावणधाईए अंकधाईए, जहा दढपइन्ने, जाव निव्वाधाए गिरिकन्दरमल्लीणे विव चम्पकपायवे सुहंसुहेणं परिवड्ढइ। १७–तत्पश्चात् सुभद्रा सार्थवाही उस बालक को जन्मते ही एकान्त में कूड़े-कर्कट के ढेर पर डलवा देती है, और पुनः उठवा लेती है। तत्पश्चात् क्रमश: संरक्षण व संगोपन करती हुई उसका परिवर्द्धन करने लगती है। उसके बाद उस बालक के माता-पिता स्थितिपतित-कुलमर्यादा के अनुसार पुत्रजन्मोचित बधाई बांटने आदि की क्रिया करते हैं। चन्द्र-सूर्य-दर्शन-उत्सव व जागरण महोत्सव भी महान् ऋद्धि एवं सत्कार के साथ करते हैं / तत्पश्चात् उस बालक के माता-पिता ग्यारहवें दिन के व्यतीत हो जाने पर तथा बारहवां दिन आ जाने पर इस प्रकार का गौण-गुण से सम्बन्धित व गुणनिष्पन्न-गुणानुरूप नामकरण करते हैं क्योंकि हमारा यह बालक एकान्त में उकरड़े-कचरा फेंकने की जगह पर फेंक दिया गया था, अतः हमारा यह बालक 'उज्झितक' नाम से प्रसिद्ध हो। तदनन्तर बह उज्झितक कुमार पांच धायमाताओं की देखरेख में रहने लगा। उन धायमाताओं के नाम ये हैं-क्षीरधात्रीदूध पिलाने वाली, स्नानधात्री-स्नान कराने वाली, मण्डनधात्री---वस्त्राभूषण से अलंकृत करने वाली, क्रीडापनधात्री-क्रीडा कराने वाली, और अङ्कधात्री-गोद में उठाकर खिलाने वाली। इन धायमाताओं के द्वारा दृढ़प्रतिज्ञ की तरह निर्वात-वायु से रहित एवं निर्व्याघात-पाघात से रहित, पर्वतीय कन्दरा में अवस्थित चम्पक वृक्ष की तरह सुखपूर्वक वृद्धि को प्राप्त होने लगा। १८-तए णं से विजयमित्ते सत्थवाहे अन्नया कयाइ गणिमं च धरिमं च मेज्जं च पारिछेज्ज च चउन्विहं भंडगं गहाय लवणसमुहं पोयवहणेण उवागए। तए णं से तत्थ लवणसमुद्दे पोयविपत्तीए निव्वुड्डभंडसारे अत्ताणे असरणे कालधम्मुणा संजुत्ते / तए णं तं विजयमित्तं सत्यवाहं जे जहा बहवे ईसर-तलवर-माडंबिय-कोडुबिय-इन्भ-सेट्ठि-सत्यवाहा लवणसमुद्दे पोयविवत्तीए छूढं निव्वुड्डभउसारं कालधम्मुणा संजुत्तं सुणेन्ति, ते तहा हत्थनिक्खेवं च बाहिरभाण्डसारं च गहाय एगते अवक्कमति ! 1. प्रस्तुत सूत्र में हस्तनिक्षेप ब बाह्यभाण्डसार इन शब्दों का प्रयोग किया गया है, प्राचार्य अभयदेव सरि ने इन पदों की निम्न व्याख्या की है-'हस्तेनिक्षेपो-न्यासः समर्पणं यस्य द्रव्यस्य तद् हस्तनिक्षेपम्, हस्तनिक्षेपव्यतिरिक्तं च भाण्डसारम। धरोहर को हस्तनिक्षेप कहते हैं अर्थात् किसी की साक्षी के बिना अपने हाथ से दिया गया सारभाण्ड हस्तनिक्षेप है और किसी को साक्षी से लोगों की जानकारी में दिया गया सारभाण्ड बाह्यभाण्डसार के नाम से प्रचलित है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org