________________ प्रथम अध्ययन ] [25 में उत्पन्न होगा / वहाँ से मृत्यु के समय काल करके सात सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति वाले तीसरे नरक में उत्पन्न होगा। वहाँ से निकलकर सिंह की योनि में उत्पन्न होगा। वहाँ वह बड़ा अधर्मी, दूरदूर तक प्रसिद्ध शूर एवं गहरा प्रहार करने वाला होगा। वहाँ से काल करके चौथी नरकभूमि में जन्म लेगा। चौथे नरक से निकलकर सर्प बनेगा। वहाँ से पाँचवें नरक में उत्पन्न होगा। वहाँ से निकलकर स्त्रीरूप में उत्पन्न होगा / स्त्री पर्याय से काल करके छठे नरक में उत्पन्न होगा। वहाँ से निकलकर पुरुष होगा / वहाँ से काल करके सबसे निकृष्ट सातवीं नरक भूमि में उत्पन्न होगा। वहाँ से निकलकर जो ये पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चों में मच्छ, कच्छप, ग्राह, मगर, सुसुमार आदि जलचर पञ्चेन्द्रिय जाति में योनियाँ है—उत्पत्तिस्थान हैं, एवं कुलकोटियों में, जिनकी संख्या साढ़े बारह लाख है, उनके एक एक योनि-विधान-योनि-भेद में लाखों बार उत्पन्न होकर पुनः पुनः उत्पन्न होकर मरता रहेगा। तत्पश्चात् चतुष्पदों में (चौपाये-पशु-योनि में) उरपरिसर्प-छाती के बल चलने वालों में, भुज-परिसर्प-भुजाओं के बल चलने वालों में, खेचर-आकाश में उड़ सकने वाले जीवों में, एवं चार इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय और दो इन्द्रिय वाले प्राणियों में तथा वनस्पति कायान्तर्गत कटु-कड़वे वृक्षों में, कटु दुग्धवाली अर्कादि वनस्पतियों में, वायुकाय, तेजस्काय, अप्काय व पृथ्वीकाय में लाखोंलाखों बार जन्म मरण करेगा। तदनन्तर वहाँ से निकलकर सुप्रतिष्ठपुर नामक नगर में वृषभ (बैल) के पर्याय में उत्पन्न होगा। जब वह बाल्यावस्था को त्याग करके युवावस्था में प्रवेश करेगा तब किसी समय, वर्षाऋतु के प्रारम्भ-काल में गंगा नामक महानदी के किनारे पर स्थित मृत्तिका-मिट्टीको खोदता हुआ नदी के किनारे पर गिर जाने से पीड़ित होता हुमा मृत्यु को प्राप्त हो जायगा। मृत्यु को प्राप्त हो जाने के अनन्तर उसी सुप्रतिष्ठपुर नामक नगर में किसी श्रेष्ठ के घर में पुत्ररूप से उत्पन्न होगा। वहाँ पर वह बालभाव को परित्याग कर युवावस्था को प्राप्त होने पर तथारूप-साधुजनोचित गुणों को धारण करने वाले स्थविर-वृद्ध जैन साधुओं के पास धर्म को सुनकर, मनन कर तदनन्तर मुण्डित होकर अगारवृत्ति का परित्याग कर अनगारधर्म को प्राप्त करेगा अर्थात् गृहस्थावस्था को छोड़ कर साधुधर्म को अङ्गीकार करेगा / अनगारधर्म में ईर्यासमिति युक्त यावत् ब्रह्मचारी होगा। वह बहुत वर्षों तक यथाविधि श्रामण्य-पर्याय (साधुवृत्ति) का पालन करके आलोचना व प्रतिक्रमण से आत्मशुद्धि करता हुआ समाधि को प्राप्त कर समय आने पर कालमास में काल प्राप्त करके सौधर्म नाम के प्रथम देवलोक में देवरूप में उत्पन्न होगा। तदनन्तर देवभव की स्थिति पूरी हो जाने पर वहाँ से च्यूत होकर (देवशरीर को छोड़कर) महाविदेह क्षेत्र में जो प्राढ्य-सम्पन्न (धनाढय) कुल हैं; उनमें उत्पन्न होगा / वहाँ उसका कलाभ्यास, प्रव्रज्याग्रहण यावत् मोक्षगमन रूप वक्तव्यता दृढप्रतिज्ञ की भांति ही समझ लेनी चाहिये। सुधर्मा स्वामी कहते हैं-हे जम्बू ! इस प्रकार से निश्चय ही श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने, जो कि मोक्ष को प्राप्त हो चुके हैं; दुःखविपाक के प्रथम अध्ययन का यह (पूर्वोक्त) अर्थ प्रतिपादन किया है। जिस प्रकार मैंने प्रभु से साक्षात् सुना है; उसी प्रकार हे जम्बू ! मैं तुमसे कहता हूँ। // प्रथम अध्ययन समाप्त / / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org