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________________ 46 [विपाकसूत्र-प्रथम श्रु तस्कन्ध मृत्यु को प्राप्त करके तीसरी पृथ्वी-नरक में उत्कृष्ट सात सागरोपम की स्थितिवाले नारकों में नारक रूप से उत्पन्न हुआ। वह निर्णयनामक अण्डवणिक नरक से निकलकर विजयनामक चोरसेनापति की स्कन्दश्री भार्या के उदर में पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ / १३–तए णं तीसे खन्दसिरीए भारियाए अन्नया कयाइ तिण्ह मासाणं बहुपडिपुण्णाणं इमे एयारूवे दोहले पाउन्भूए। 'धन्नाओ णं तानो अम्मयामो जामो णं बहूहि मित्त-नाइ-नियग-सयणसंबंधि-परियणमहिलाहिं अन्नाहि य चोरमहिलाहिं सद्धि संपरिवडा व्हाया कयबलिकामा जाव (कयकोउयमंगल-) पायच्छित्ता सव्वालंकारविभूसिया विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं सुरं च मज्जं च प्रासाएमाणी बिसाएमाणी परिभाएमाणी परिभुजेमाणी विहरति / जिमियभुत्तत्तरागयायो पुरिसनेवत्थिया सन्नद्धबद्धवम्मियकवइया जाव' गहियाउहप्पहरणा भरिएहि फलरहि, निक्किट्ठाहिं असोहि, अंसागरहि तो!ह सजोवेहि धहि, समुक्खित्तेहिं सरेहि, समुल्लासियाहि दामाहि, लंबियाहि य प्रोसारियाहिं उरुघण्टाहिं, छिप्यतूरेणं वज्जमाणेणं महया उक्किटु जाव (सोहनाय-बोल-कलकलरवेणं) समुद्दरवभूयं पिव करेमाणीपो सालाडवीए चोरपल्लीए सव्वश्रो समंता पालोएमाणीग्रो पालोएमाणीयो हिंडमाणीयो दोहलं विन्ति / तं जइ अहं पि जाव दोहलं विणिज्जामि' ति कट्ट, तंसि दोहलंसि अविणिज्जमाणंसि जाव सुक्का भुक्खा जाव अज्झाणोवगया भूमिगयदिट्ठीया झियाइ। १३-किसी अन्य समय लगभग तीन मास परिपूर्ण होने पर स्कन्दश्री को यह दोहद (संकल्प) उत्पन्न हुआ-वे माताएँ धन्य हैं, जो मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धियों और परिजनों की महिलाओं तथा अन्य महिलाओं से परिवृत होकर स्नान यावत् अनिष्टोत्पादक स्वप्नादि को निष्फल बनाने के लिये प्रायश्चित्त रूप में माङ्गलिक कृत्यों को करके सर्वप्रकार के अलंकारों से अलंकृत हो, बहुत प्रकार के प्रशन, पान, खादिम स्वादिम पदार्थों तथा सुरा, मधु, मेरक, जाति और प्रसन्नादि मदिराओं का आस्वादन, विस्वादन, परिभाजन और परिभोग करती हुई विचरती हैं, तथा भोजन के पश्चात् जो उचित स्थान पर उपस्थित हई हैं, जिन्होंने पुरुष का वेष पहना हया है और जो दृढ बन्धनों से बंधे हुए, लोहमय कसूलक आदि से युक्त कवच-लोहमय वख्तर को शरीर पर धारण किये हुए हैं, यावत् आयुध और प्रहरणों से युक्त हैं, तथा वाम हस्त में धारण किये हुए फलक-ढालों से, कोश-म्यान से बाहर निकली हुई तलवारों से, कन्धे पर रखे हुए तरकशों से ऊँचे किये हुए पाशोंजालों अथवा शस्त्रविशेषों से, सजीव-प्रत्यंचा युक्त धनुषों से, सम्यक्तया फेंके जाने वाले बाणों से, लटकती व अवसारित चालित जंघा-घण्टियों के द्वारा तथा क्षिप्रतूर्य (शीघ्र बजाया जाने वाला वाजा) बजाने से महान्, उत्कृष्ट-प्रानन्दमय महाध्वनि से समुद्र की आवाज के समान आकाशमण्डल को शब्दायमान करती हुई शालाटवी नामक चोरपल्ली के चारों ओर अवलोकन तथा उसके चारों तरफ भ्रमण करती हुई अपना दोहद पूर्ण करती हैं। __ क्या अच्छा हो यदि मैं भी इसी भांति अपने दोहद को पूर्ण करूँ ? ऐसा विचार करने के पश्चात् वह दोहद के पूर्ण न होने से उदास हुई, दुबली पतली और जमीन पर नजर गड़ाए पार्त ध्यान करने लगी। 1. द्वि. अ., सूत्र-६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003479
Book TitleAgam 11 Ang 11 Vipak Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages214
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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