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________________ 124 | विपाकसूत्र-द्वितीय श्र तस्कन्ध १४-"पभू णं भन्ते ! सुबाहुकुमारे देवाणुप्पियाणं अंतिए मुंडे भवित्ता अगाराप्रो अणगारियं पवइत्तए?" 'हता पभू'। तए णं से भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ, वंदित्ता नमंसित्ता संजमेण तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरई / तए णं से समणे भगवं महावीरे अन्नया कयाइ हथिसीसानो नयरात्रो पुफ्फकरंडायो उज्जाणाम्रो कथवणमालज-खाययणाओ पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता बहिया जणवयविहारं विहरइ। तए णं से सुबाहुकुमारे समणोवासए जाए अभिगयजीवाजीवे जाव' पडिला माणे विहरइ / गौतम-प्रभो! सुबाहुकुमार प्रापश्री के चरणों में मुण्डित होकर, गृहस्थावास को त्याग कर अनगार धर्म को ग्रहण करने में समर्थ है ? भगवान्–हाँ गौतम ! है अर्थात् प्रवजित होने में समर्थ है / तदनन्तर भगवान् गौतम ने श्रमण भगवान महावीर स्वामी को वन्दना व नमस्कार किया। वन्दना नमस्कार करके संयम तथा तप से आत्मा को भावित करते हुए विहरण करने लगे। तदनन्तर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने किसी अन्य समय हस्तिशीर्ष नगर के पुष्पकरण्डक उद्यानगत कृतवनमाल नामक यक्षायतन से विहार किया और विहार करके अत्य देशों में विचरने लगे। इधर सुबाहुकुमार श्रमणोपासक-देशविरत श्रावक हो गया। जीव अजीव आदि तत्वों का मर्मज्ञ यावत् आहारादि के दान-जन्य लाभ को प्राप्त करता हुआ समय व्यतीत करने लगा। विवेचन—भगवान महावीर की धर्मदेशना से प्रभावित व प्रतिबोधित हए सुबाहकुमार ने भगवान् से कहा था-प्रभो! अापके पास अनेक राजा-महाराजा, सेठ-साहूकार, साधु धर्म को स्वोकार करते हैं परन्तु मैं उस सर्वविरति रूप साधुधर्म को स्वीकार करने में समर्थ नहीं हूँ। अतः आप मुझे देशविरति धर्म-अणुव्रत पालन का ही नियम करावें / सुबाहुकुमार के उक्त कथन को स्मृति में रखते हुए गौतम स्वामी ने 'पभू णं, भंते ! सुबाहुकुमारे देवाणुप्पियाणं अंतिए मुडे भवित्ता अगारानो अणगारियं पव्वइत्तए ?' इस प्रश्न में 'पभू' शब्द का इसी अभिप्राय से प्रयोग किया लगता है ! १५---तए णं से सुबाहुकुमारे अन्नया कयाइ चाउद्दसट्टमुद्दिट्ठपुण्णमासिणीसु जेणेव पोसहसाला तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छिता पोसहसाल पमज्जइ, पमज्जित्ता उच्चारपासवणभूमि पडिलेहेइ पडिले हित्ता दब्भसंथारगं संथरइ संथरित्ता दब्भसंथारं दुरुहइ, दुरुहिता अट्टम भत्त पगिण्हइ, पगिहित्ता पोसहसालाए पोसहिए अट्ठमभत्तिए पोसहं पडिजागरमाणे पडिजागरभाणे विहरइ। 15. तत्पश्चात् किसी समय वह सुबाहुकुमार चतुर्दशी, अष्टमी, उद्दिष्ट-अमावस्या और 1. देखिये समिति द्वारा प्रकाशित उपासकदशांग पृ. 62. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003479
Book TitleAgam 11 Ang 11 Vipak Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages214
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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