________________ 128 ] [ विपाकसूर --द्वितीय श्र तस्कन्ध 20. तदनंतर वह सुबाहुकुमार का जीव सौधर्म देवलोक से आयु, भव और स्थिति के क्षय होने पर व्यवधान रहित देव शरीर को छोडकर सीधा मनुष्य शरीर को प्राप्त क शंकादि दोषों से रहित केवली - बोधि का लाभ करेगा, बोधि उपलब्ध कर तथारूप स्थविरों के पास मुडित होकर साधुधर्म में प्रवजित हो जाएगा। वहाँ वह अनेक वर्षों तक श्रामण्यपर्याय--संयम व्रत का पालन करेगा और आलोचना तथा प्रतिक्रमण कर समाधि को प्राप्त होगा। काल धर्म को प्राप्त कर सनत्कुमारनामक तीसरे देवलोक में देवता के रूप से उत्पन्न होगा। वहाँ से पुनः मनुष्य भव प्राप्त करेगा। दीक्षित होकर यावत् महाशुक्र नामक देवलोक में उत्पन्न होगा / वहाँ से च्यव कर फिर मनुष्य-भव में जन्म लेगा और पूर्व की ही तरह दीक्षित होकर यावत् प्रानत नामक नवम देवलोक में उत्पन्न होगा। वहाँ की भवस्थिति को पूर्ण कर मनुष्य-भव में प्राकर दीक्षित हो धारण नाम के ग्यारहवें देवलोक में उत्पन्न होगा। वहाँ से च्यव कर मनुष्य-भव को धारण करके अनगार-धर्म का अाराधन कर शरोरान्त होने पर सर्वार्थसिद्ध नामक विमान में उत्पन्न होगा। वहाँ से च्यवकर सुबाहुकुमार का वह जीव व्यवधानरहित महाविदेह क्षेत्र में सम्पन्न कुलों में से किसी कुल में उत्पन्न होगा। वहाँ दृढप्रतिज्ञ' की भाँति चारित्र प्राप्त कर सिद्धपद को प्राप्त करेगा। विवेचन - 'ग्राउक्खएणं' प्रादि तीन शब्दों की व्याख्या वृत्तिकार श्री अभयदेव सूरि ने इस प्रकार की है-'पाउक्खएणं त्ति-प्रायष्यकर्मनिर्जरेण, भवक्खएण त्ति देवगतिनिबन्धनदेवगत्यादिकर्मद्रव्यनिर्जरेण, ठिडक्खएणं प्रायष्यकर्मादिकर्मस्थितिविगमेन / ' प्राय शब्द से प्रायष्कर्म के दलिकों या कर्मवर्गणाओं का क्षय इष्ट है। भव शब्द से देवगति में कारणभूत देवगति नामकर्म के कर्मदलिकों का नाश गृहीत है-और स्थिति शब्द से ग्रायुष्कर्म के दलिक जितने समय तक आत्मप्रदेशों से सम्बन्धित रहते हैं, उस कालस्थिति का नाश स्थितिनाश कहा जाता है / २१-एवं खलु जम्बू ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं सुहविवागाणं पढमस्स अज्झयणस्स अयम? पण्णत्ते / त्ति बेमि / 21. प्रार्य सुधर्मा स्वामी कहते हैं. हे जम्बू ! यावत् मोक्षसम्प्राप्त श्रमण भगवान् महावीर ने सुखविपाक अंग के प्रथम अध्ययन का यह अर्थ प्रतिपादित किया है। ऐसा मैं कहता हूँ। / प्रथम अध्ययन समाप्त / / 1. 'दृढप्रतिज्ञ' के वर्णन के लिये देखिए-ौप. सूत्र-१४१-१५४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org