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________________ सुखविपाक : प्रथम अध्ययन ] [ 127 १६-तए णं से सुबाहू अणगारे समणस्स भगवनो महावीरस्स तहारूवाणां थेराणं अंतिए सामाइयमाइयाई एक्कारस अंगाई अहिज्जइ, अहिज्जित्ता बहूहि चउत्थछट्ठट्ठमतवोवहाणेहि अप्पाणं भवित्ता बहूई वासाइं सामण्णपरियागं पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए अप्पाणं झूसित्ता सद्धि भत्ताई अणसणाए छेइत्ता पालोइयपडिक्कते समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा सोहम्मे कप्पे देवत्ताए उववन्ने / 16. तदनन्तर सुबाहु अनगार श्रमण भगवान महावीर के तथारूप स्थविरों के पास से सामायिक आदि एकादश अङ्गों का अध्ययन करते हैं / अनेक उपवास, बेला, तेला आदि नाना प्रकार के तपों के आचरण से आत्मा को वासित करके अनेक वर्षों तक श्रामण्यपर्याय (साधुवृत्ति) का पालन कर एक मास की संलेखना (एक अनुष्ठान-विशेष जिसमें शारीरिक व मानसिक तप द्वारा कषाय आदि का नाश किया जाता है) के द्वारा अपने आपको आराधित कर साठ भक्तों-भोजनों का अनशन द्वारा छेदन कर अर्थात् 29 दिन का अनशन कर आलोचना व प्रतिक्रमणपूर्वक समाधि को प्राप्त होकर कालमास में काल करके सोधर्म देवलोक में देव रूप से उत्पन्न हए। विवेचन-यहाँ यह शङ्का सम्भव है कि 'मासियाए संलेहणाए' शब्द का उल्लेख करने के बाद 'सट्ठिभत्ताई' का उल्लेख हुआ है, जो 29 दिन का ही वाचक है तो 'मासियाए संलेहणाए' की अर्थसङ्गति कैसे बैठेगी? हमारी दृष्टि से इसकी यह संङ्गति सम्भव है कि प्रत्येक ऋतु में मासगत दिनों की संख्या समान नहीं होती है, अत: जिस ऋतु में जिस मास के 29 दिन होते हैं उस मास को ग्रहण करने के लिए सूत्रकार ने 'मासियाए संलेहणाए' शब्द ग्रहण किया है। यह पद देकर भी 'सट्ठिभत्ताई' जो पद दिया है उससे यही द्योतित होता है कि 29 दिन के मास में ही साठ भक्त-भोजन छोड़े जा सकते हैं, 30 दिन के मास में नहीं। २०--से णं तारो देवलोगाओ आउक्खएणं, भवक्खएणं, ठिइक्खएणं अणंतरं चयं चइत्ता माणुस्सं विग्गहं लहिहिइ, लहिहिता केवलं बोहिं बुज्झिहिइ, बुज्झिहित्ता तहारूवाणं थेराणं अंतिए मुडे जाव पन्वइस्सइ / से णं तत्थ बहूई वासाई सामण्णं पाउणिहिइ, पाउणिहिता पालोइयपडिक्कते समाहिंपत्ते कालगए सणंकुमारे कप्पे देवत्ताए उम्वन्जिहिइ। से णं तारो देवलोगानो माणुस्सं, पवजा बंभलोए। माणुस्सं / तो महासुक्के / तो माणुस्सं, प्राणए देवे / तो माणुस्सं, पारणे। तो माणुस्सं, सव्वदृसिद्ध / से णं तपो प्रणंतरं उव्वट्टित्ता महाविदेहे वासे जाई अड्राइं जहा दढपइन्ने, सिज्झिहिइ / 1. सामायिक शब्द चारित्र के पंचविध विभागों में से प्रथम विभाग-पहला चारित्र,श्रावक का नवम व्रत, आवश्यक सूत्र का प्रथम विभाग तथा संयमविशेष इत्यादि अनेक अर्थों का द्योतक है / प्रकृत में मामायिक का अर्थ प्रथम अङ्ग आचाराङ्ग ग्रहण करना अनुकूल प्रतीत होता है, कारण 'सामाइयमाइयाई' ऐसा उल्लेख है और वह 'एक्कारस अंगाई' का विशेषण है अर्थात् सामायिक है आदि में जिसके ऐसे ग्यारह अङ्ग ! ग्यारह अङ्गों के नाम ये हैं--पाचाराङ्ग, सूत्रकृताङ्ग, स्थानांग, समवायांम, भगवती, ज्ञाताधर्मकथाङ्ग, उपासकदशाङ्ग, अन्तकृशाङ्ग, अनुत्तरोपपातिकदशाङ्ग, प्रश्नव्याकरण, विपाकसूत्र / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003479
Book TitleAgam 11 Ang 11 Vipak Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages214
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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