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________________ 126 [ विपाकसूत्र---द्वितीय श्रुतस्कन्ध वे राजा, ईश्वर प्रादिक धन्य हैं जो श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास पञ्चाणुवतिक और सप्त शिक्षावतिक (पांच अणुव्रतों एवं सात शिक्षाव्रतों का जिसमें विधान है) उस बारह प्रकार के गृहस्थ धर्म को अङ्गीकार करते हैं। वे राजा ईश्वर आदि धन्य हैं जो श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास धर्म-श्रवण करते हैं। सो यदि श्रमण भगवान महावीर स्वामी पूर्वानुपूर्वी-क्रमशः गमन करते हुए ग्रामानुग्राम विचरते हुए, यहाँ पधारें तो मैं गृह त्याग कर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास मुडित होकर प्रवजित हो जाऊँ। १७---तए णं समणे भगवं महावीरे सुबाहुस्स कुमारस्स इमं एयारूवं अज्झत्थियं जाव' वियाणित्ता पुवाणुपुचि जावर दूइज्जमाणे जेणेव हत्थिसीसे जयरे जेणेव पुफ्फकरंडे उज्जाणे जेणेव कयवणमालपियस्स जक्खस्स जक्खाययणे तेणेव उवागच्छइ, उवाच्छित्ता अहापडिरूवं उग्गहं उम्गिमिहत्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ / परिसा राया निग्गया / तए णं तस्स सुबाहुस्स कुमारस्स तं महया जणसई वा जणसण्णिवायं वा जहा जमाली तहा निग्गयो / धम्मो कहियो / परिसा राया पडिगया / 17. तदनन्तर श्रमण भगवान महावीर स्वामी सुबाहु कुमार के इस प्रकार के संकल्प को जानकर क्रमशः ग्रामानुग्राम विचरते हुए जहाँ हस्तिशीर्षनगर था, और जहाँ पुष्पकरण्डक नामक उद्यान था, और जहाँ कृतवनमालप्रिय यक्ष का यक्षायतन था, वहाँ पधारे एवं यथा प्रतिरूप-अनगार वृत्ति के अनुकूल अवग्रह-स्थानविशेष को ग्रहण कर संयम व तप से आत्मा को भावित करते हुए अवस्थित हुए। तदनन्तर परिषदा व राजा दर्शनार्थ निकले / सुबाहुकुमार भी पूर्व ही की तरह बड़े समारोह के साथ भगवान् की सेवा में उपस्थित हुअा / भगवान् ने उस परिषद् तथा सुबाहुकुमार को धर्म का प्रतिपादन किया। परिषद और राजा धर्मदेशना सुन कर वापिस चले गये। १८--तए णं सुबाहुकुमारे समणस्स भगवनो महावीरस्स अंतिए धम्म सोच्चा निसम्म हट्टतुट्ठ० जहा मेहो तहा अम्मापियरो आपुच्छइ / निक्खणाभिसेलो तहेव जाव अणगारे जाव इरियासमिए जाव गुत्तबंभयारी। 18. सुबाहुकुमार श्रमण भगवान् महावीर के पास से धर्म श्रवण कर उसका मनन करता हुप्रा (ज्ञाताधर्मकथा में वर्णित) श्रेणिक राजा के पुत्र मेघकुमार की तरह अपने माता-पिता से अनुमति लेता है / तत्पश्चात् सुबाहुकुमार का निष्क्रमण-अभिषेक मेघकुमार ही की तरह होता है। यावत् वह अनगार हो जाता है, ईर्यासमिति का पालक यावत् गुप्त ब्रह्मचारी बन जाता है / ३-भगवती श 9 / १-२–देखिये ऊपर का 16 वां सूत्र। ४-देखिये ज्ञाताधर्मकथा, प्र. अ. / For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003479
Book TitleAgam 11 Ang 11 Vipak Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages214
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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