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________________ तृतीय अध्ययन : अभग्नसेन ] अभग्नसेन, अधामिक, अधर्मनिष्ठ, अधर्मदर्शी एवं अधर्म का आचरण करता हुया यावत् राजदेय करमहसूल को भी ग्रहण करने लगा। १६-तए णं ते जाणवया पुरिसा अभग्गसेणेणं चोरसेणावइणा बहुगामघायावणाहिं ताविया समाणा अन्नमन्नं सद्दावेति, सद्दावेत्ता एवं वयासी 'एवं खलु, देवाणप्पिया! प्रभग्गसेणे चोरसेणावई पुरिमतालस्स नयरस्स उत्तरिल्लं जणवयं बहूहि गामघाएहिं जाव' निद्धणं करेमाणे विहरई / 'तं सेयं खलु, देवाणुप्पिया ! पुरिमताले नयरे महब्बलस्स रष्णो एयम8 विन्नवित्तए।' तए णं ते जाणवया पुरिसा एयम अन्नमन्नेणं पडिसुणेति, पडिसुणेत्ता महत्थं महग्धं महरिहं रायारिहं पाहुडं गिण्हंति, गिण्हित्ता जेणेव पुरिमताले नया तेणेव उवागया, जेणेव महाबले राया तेणेव उवागया / महाबलस्स रण्णो तं महत्थं जाव पाहुडं उवणेति, उवणेत्ता करयलपरिग्गहियं मत्थए अंजलि कटु महाबलं रायं एवं क्यासी ‘एवं खलु सामी ! सालावडीए चोरपल्लीए अभग्गसेणे चोरसेणावई अम्हे बहूहि गामघाएहि य जाव निद्धणे करेमाणे विहरइ। तं इच्छामो णं, सामो! तुझं बाहुच्छायापरिग्गहिया निब्भया निरुवसग्गा सुहेणं परिवसित्तए' त्ति कुटु पायवडिया पंजलि उडा महाबलं रायं एयमट्ठ विन्नति / १६-तदनन्तर अभग्नसेन नामक चोरसेनापति के द्वारा बहुत ग्रामों के विनाश से सन्तप्त हुए उस देश के लोगों ने एक दूसरे को बुलाकर इस प्रकार कहा हे देवानुप्रियो ! चोरसेनापति अभग्नसेन पुरिमताल नगर के उत्तरदिशा के बहुत से ग्रामों का विनाश करके वहाँ के लोगों को धन-धान्यादि से रहित कर रहा है / इसलिये हे देवानुप्रियो ! पुरिमताल नगर के महाबल राजा को इस बात से संसूचित करना अपने लिये श्रेयस्कर है। तदनन्तर देश के एकत्रित सभी जनों ने परस्पर इस बात को स्वीकार कर लिया और जहाँ पर पुरिमताल नगर था एवं जहाँ पर महाबल राजा था, वहाँ महार्थ, महार्घ (बहुमूल्य) महार्ह व राजा के योग्य भेंट लेकर आये और दोनों हाथ जोड़कर मस्तक पर दस नखों वाली अंजलि करके महाराज को वह मूल्यवान भेंट अर्पण की। अर्पण करके महाबल राजा से इस प्रकार बोले 'हे स्वामिन् ! इस प्रकार निश्चय ही शालाटवी नामक चोरपल्ली का चोरसेनापति अभग्नसेन ग्रामघात तथा नगरपात आदि करके यावत् हमें निर्धन बनाता हुग्रा विचरण कर रहा है / हे नाथ ! हम चाहते हैं कि आपकी भुजाओं की छाया से संरक्षित होते हुए निर्भय और उपसर्ग रहित होकर हम सुखपूर्वक निवास करें। इस प्रकार कहकर, पैरों में पड़कर तथा दोनों हाथ जोडकर उन प्रान्तीय परुषों ने महाबल नरेश से इस प्रकार विज्ञप्ति की। २०–तए णं महब्बले राया तेसि जाणवयाणं पुरिसाणं अंतिए एयम? सोच्चा निसम्म प्रासुरत्ते जाव (रुष्टु कुविए चंडिक्किए मिसिमिसेमाणे तिवलियं भिडिं निडाले साहटु दंडं सहावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी—'गच्छह णं तुमं देवाणुप्पिया! सालावि चोरपल्लिं विलुपाहि, विलुपित्ता प्रभग्गसेणं चोरसेणावई जीवग्गाहं गिहाहि, गिरिहत्ता ममं उवणेहि।' 1-2. 1/3 सूत्र-५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003479
Book TitleAgam 11 Ang 11 Vipak Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages214
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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