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________________ 38 [विपाकसूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध रहने वाला) वह उज्झितक कुमार अन्यत्र कहीं भी स्मृति--स्मरण, रति—प्रीति व धृति-मानसिक शान्ति को प्राप्त न करता हुआ, उसी में चित्त व मन को लगाए हुए, तद्विषयक परिणामवाला, तद्विषयक अध्यवसाय-योगक्रिया, उसी सम्बन्धी प्रयत्न-विशेष वाला, उसकी ही प्राप्ति के लिए उद्यत, उसी में मन वचन और इन्द्रियों को समर्पित करने वाला, उसी की भावना से भावित होता हुया कामध्वजा वेश्या के अनेक अन्तर (ऐसा अवसर कि जिस समय राजा का आगमन न हो) छिद्र (राज-परिवार का कोई व्यक्ति भी न हो) व विवर (कोई सामान्य पुरुष भी जिस समय न हो) की गवेषणा करता हुआ जीवनयापन कर रहा था। तदनन्तर वह उज्झितक कुमार किसी अन्य समय में कामध्वजा गणिका के पास जाने का अवसर प्राप्तकर गुप्तरूप से उसके घर में प्रवेश करके कामध्वजा वेश्या के साथ मनुष्य सम्बन्धी उदार विषयभोगों का उपभोग करता हुआ जीवनयापन करने लगा! २२-इमं च णं बलमित्त राया हाए जाव (कयबलिकम्मे कयकोउअमंगल) पायच्छित्ते सवालंकारविमूसिए मणुस्सवागुरापरिक्खित्ते जेणेव कामझयाए गणियाए गेहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तत्थ णं उज्झियए दारए कामझयाए गणियाए सद्धि उरालाई भोग-मोगाई जाव विहरमाणं पासइ, पासित्ता प्रासुरुत्ते रुट्ठ, कुविए चंडिक्किए मिसिमिसेमाणे तिवलियभिडिं निडाले साहटु उझियगं दारगं पुरिसेहि गिण्हावेइ, गेण्हावित्ता अढि-मुट्ठि-जाण-कोप्पर-पहार-संभग्ग-महियगतं करेइ, करेत्ता प्रवप्रोडयबन्धणं करेइ, करेत्ता एएणं विहाणेणं वज्झं माणवेइ / एवं खलु, गोयमा ! उज्झियए दारए पुरापोराणाणं कम्माणं जाव पच्चणभवमाणे विहरइ / २२–इधर किसी समय बलमित्र नरेश, स्नान, बलिकर्म, कौतुक, मंगल (दुष्ट स्वप्नों के फल को विनष्ट करने के लिये) प्रायश्चित्त के रूप में मस्तक पर तिलक एवं मांगलिक कार्य करके सर्व अलंकारों से अलंकृत हो, मनुष्यों के समूह से घिरा हुआ कामध्वजा वेश्या के घर गया। वहाँ उसने कामध्वजा वेश्या के साथ मनुष्य सम्बन्धी भोगों का उपभोग करते हुए उज्झितक कुमार को देखा / देखते ही वह क्रोध से लाल-पीला हो गया। मस्तक पर त्रिवलिक भृकुटि-तीन रेखाओं वाली भोंह (लोचन-विकारविशेष) चढ़ाकर अपने अनुचरों के द्वारा उज्झितक कुमार को पकड़वाया। पकड़वाकर यष्टि (लकड़ी), मुष्टि (मुक्का), जानु (घुटना), कूर्पर (कोहनी) के प्रहारों से उसके शरीर को चूरचूर और मथित करके अवकोटक बन्धन (जिस बन्धन में ग्रीवा को पृष्ठ भाग में ले जाकर हाथों के साथ बांधा जाय) से बांधा और बाँधकर 'इसी प्रकार से यह बध्य है' (जैसा तुमने देखा है) ऐसी प्राज्ञा दी। हे गौतम ! इस प्रकार वह उज्झितक कुमार पूर्वकृत पापमय कर्मों का फल भोग रहा है / उज्झितक का भविष्य २३--'उझियए णं भंते ! दारए इमो कालमासे कालं किच्चा कहिं गच्छिहिइ, कहि उववन्जिहिइ ?' गोयमा ! उज्झियए दारगे पणवीसं वासाई परमाउयं पालइत्ता अज्जेव तिभागावसेसे दिवसे सूलोभिन्ने कए समाणे कालमासे कालं किच्वा इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए नेरइयत्ताए उववज्जिहिइ / Jain Education International For Private & Personal Use Only For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.003479
Book TitleAgam 11 Ang 11 Vipak Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Ratanmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages214
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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