________________
प्रातसेवाधिकार। है-गुरु मायश्चितके योग्य है। वाकीके चौदह भग भाज्य हैंलघु-गुरु दोनों तरहके हैं अतः छोटे बड़े प्रायश्चितके योग्य हैं।
आगाढकारणे कश्चिच्छेषाशुद्धोऽपि शुद्धयति । विशुद्धोऽपि पदैः शेषैरनागाढे न शुद्धयति ॥२१॥ ___ अर्थ-देव, मनुष्य, तियञ्च या अचेतनकृत उपसर्ग वश या व्याधिवश दोप सेवन कर लेने पर, शेप असत्कारी, असानुवीची ओर अयनसेवी पदों कर अशुद्ध होते हुए भी, कोई पुरुष शुद्ध हो जाता है अर्थात् वह उस दोषयोग्य लघु प्रायश्चितका पात्र है। तथा कोई पुरुष विना कारण दोष सेवन कर लेने पर शेष सत्कारी, सानुवोची और प्रयत्नसेवी पदोंसे शुद्ध होते हुए भी शुद्ध नहीं होता-लघु प्रायश्चित्तका पात्र नहीं होता ॥२१॥
अव आठ अनिमित्त भंगोंको कहते हैंअकारणे सकृत्कारी सानुवीचिः प्रयत्नवान् । तद्विपक्षा द्विका एतेऽप्यष्टावन्योन्यसंगुणाः॥२२॥
अर्थ-अकारणभंगोंमें सकृत्कारी, सानुवीचि और प्रयत्नवान इन तीनोंको लघु संज्ञा है और इनके विपक्षी असत्कारी, असानवीची और अप्रयत्नमतिसेवीकी द्विक अर्थात गुरु संज्ञा है। ये भी परस्पर गुणा करने पर आठ. होते हैं। संदृष्टि