Book Title: Prayaschitta Samucchaya
Author(s): Pannalal Soni
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha

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Page 198
________________ प्रायश्चित्तकर दीक्षा देदे तो दोष नहीं परंतु जान लेने पर उसे छोड़ देना चाहिए यदि वह आचार्य उस नीच कुलीको न छोड़े तो अन्य साधुओंको चाहिए कि वे उस नीच कुलीको दीवा देनेवाले प्राचार्यको भी छोड़ दें॥१०६॥ . शिष्ये तस्मिन् परित्यक्ते देयोमासोऽस्य दंडनं। चांडालाभोज्यकारूणां दीक्षणे द्विगुणं च तत् ।। __ अर्थ-उस अकुलीन शिष्यके छोड़ देने पर इस भाचार्य- . को पंचकल्याण प्रायश्चित्त देना चाहिए तथा भंगी चमार आदिको और अभोज्य कारों-धोबी, बहना, कलाल मादि को दीक्षा देने पर वह पूर्वोक्त पंचकल्याण प्रायश्चित्त दना देना . चाहिए ॥११॥ अनाभोगेन चेत्सरिदोंपमाप्नोति कुत्रचित्।। अनाभोगेन तच्छेदो वैपरीत्याद्विपर्ययः॥१११॥ __ अर्थ-यदि आचार्य कहीं भी अप्रकाश रूपसे दोषको प्राप्त . हो तो उसको अप्रकाशरूपसे ही प्रायश्चित्त देना चहिए और बदि प्रकाशरूपसे दोषको प्राप्त हो तो उसको प्रकाशरूपसे हो प्रायश्रित देना चाहिए ॥११॥ क्षुल्लकानां च शेषाणां लिंगप्रभंशने संति। . . तत्सकाशे पुनदीक्षा मूलात्पाषंडिचेलिनाम् ॥ . अर्थ-बुधक-सर्वोत्कृष्ट आवकोंको भी किसी कारणवश उनकी दीक्षाका भंग हो जाने पर जिसको पास पहले,दीवाली

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