Book Title: Prayaschitta Samucchaya
Author(s): Pannalal Soni
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha

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Page 204
________________ २०२ प्रामश्चित्तहों तो उसपर लक्ष्य न दें। तथा ऐसे दोपोंके कहनेका प्रयत्नपूर्वक लाग करें ॥ १२५॥ यतिरूपेण वाच्याप्ता चेदानामधारिका। हा! हा! कष्टं महापापं न श्रोतुमपि युज्यते ॥ __ अर्थ-आर्या नामधरानेवाली स्त्री यदि यति नाप धरानेवाले पुरुषके साथ वदनामको प्राप्त हो जाय तो उन दोनोंको धिक्कार है, उनका यह कर्तव्य अत्यंत निकृष्ट है और महापाप है इसलिए इस पापको औरोंसे कहना और पूछना तो दूर रहो कानोंसे -सुनना भी नहीं चाहिए ॥ १२६ ॥ उभयोरपि नो नाम ग्राह्य धिमीचकर्मणोः। अन्यश्चेत्कोऽपि तद्ब्रूयात् पिधातव्ये ततःश्रुती॥ ___ अर्थ-निकृष्ट नोचकर्म करनेवाले उन दोनों लिंगधारियोंका नाम भी नहीं लेना चाहिए। यदि कोई दूसरा उन दोनों के उक्त दूषणको कह रहा हो तो अपने कान मूंद लेना चाहिए। स नीचोऽप्यश्नुते शुद्धिं शुद्धबुद्धिः प्रयत्नतः। देशकालान्तरात्तत्र लोकभावमवेत्य च ॥१२८॥ __ अर्थ-वह नोचकर्म करनेवाला साधु भी विरक्त परिणाम धारण कर लेने पर देशान्तरमें ओर कालान्तरमें सम्यग्विधान"गर्वक शुद्धिको माप्त हो सकता है। शुद्धिका विधान यह है कि प्रायश्चित्त प्रदान करनेवाला गणधर, प्रथम, जिस देशमें उसे प्रायश्चित्त दे वहां के लोगोंके परिणामोंको कि इस देशमें

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