Book Title: Prayaschitta Samucchaya
Author(s): Pannalal Soni
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha

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Page 215
________________ चूलिका । २१३ अभोज्य कारु हैं। इनमें से भोज्य कारुओं ( भोज्य शूद्रों) को ही तुनक दीक्षा देनी चाहिए, अभोज्य शूद्रोंको नहीं ॥२५॥ क्षुल्लकेष्वेककं वस्त्रं नान्यन्न स्थितिभोजनं । आतापनादियोगोऽपि तेषां शश्वनिषिध्यते॥ ___ अर्थ-तुल्लकोंके एक ही वस्त्र होता है, दूसरा नहीं। खडे -रहकर भोजन लेना भी उनके नहीं है । तथा आतापन, उत्तमूल पार अभावकाश इन योगोंका भी तुल्लकोंके लिए निषेध हैं ।। क्षौरं कुर्याच लोचं वा पाणौ भुंक्तेऽथ भाजने। कौपीनमात्रतंत्रोऽसौ क्षुल्लकः परिकीर्तितः॥ ___ अर्थ-तुल्लक छुरेसे मुंडन करे अथवा हाथोंसे वाल उपाड, वह हाथमैं भोजन करे, अथवा पात्रमें, ऐसा कौपीनपात्रके अधीन तुल्लक कहा गया है। भावार्थ-तुल्लकके दो भेद हैं। ' उनमें पहला तुलक छुरेस या कैचीसे शिरका मुडन वारता है। बैठकर पात्रमें भोजन करता है, कमरमें कौपिन पहनता है। दूसरा तुल्लक हाथास सिरके बाल उपाड़ता है, हाथमें ही बैठ कर भोजन करता है, शास्त्रान्तरोंके अनुसार वह खड़ा रहकर भी भोजन कर सकता है और कमरमें सिर्फ कोपीन पहनता है। इसका दूसरा नाम आये है जिसको बोलचालमें ऐलक कहते हैं। दोनों ही तरहकी तुल्लक दीक्षा भोज्य शूद्रोंको दो जाती है।। १५६॥ सदुदृष्टिपुरुषाः शखद्धाँदाहाद्धि बिभ्यति। लोभमोहादिभिर्धर्मदूषणं चिंतयंति न ॥१५॥

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