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चलिका
२१५ कों के संबंधसे विरक्त परिणाम हो प्रायश्चित्त है और यह जो भायश्चित्त कहा गया है वह सब व्यवहारनयकी अपेक्षासे है। भावार्य-निश्चयनय और व्यवहारनय ये दोनों नप अनादिसंबद्ध हैं और दोनों ही एक दूसरेकी अपेक्षा रखते हैं तभी सुनय कहलाते हैं अन्यथा वे कुनय हैं। इसी तरह निश्चय प्रायचित्त और व्यवहार प्रायश्चित्त ये दोनों भी अनादिसंबद्ध हैं
और एक दूसरेकी अपेक्षा रखते हैं तभी मागियोंके अपराधोंको शुद्ध कर सकते हैं भन्यथा नहीं। अतः व्यवहारमायश्चित्तके समय निश्चयमायश्चित्त और निश्चयप्रायश्चित्तके समय व्यवहारमायश्चित्त अवश्य होना चाहिए। पापकर्मा से विरक्त परिणामोंका होना निश्चयमायश्चित हैं और निविकृति आचाम्ल आदि व्यवहारमायश्चित्त हैं एवं प्रायश्चित्त दो प्रकारका हैं ॥१६० प्रायश्चित्तं प्रमादेऽदः प्रदातव्यं मुनीश्वरैः। अपि मूलं प्रकर्तव्यं बहुशोबहुशो भवेत्॥१६१॥
अर्थ-प्रायश्चित्त देनेवाले प्राचाय, काँचत्-एकवार दोप लगने पर प्रागमोक्त प्रायश्चित्त देखें और वारवार दोपोंका पाचरण करनेवाल साधुके लिए मूल-पुनर्दीक्षा प्रायश्चित्तका विधान भी करें ॥ १६१॥. . गृहीतव्यं त्रयाणां न हित स्वस्म समीप्सुभिः। नरेन्द्रस्यापि वैद्यस्य गुरोहित विधायिनः॥ - अर्थ-अपना हित चाहनेवाले :पुरुषोंको हितकारी राजा, वैद्य और गुरु इन तीनोंको कभी नहीं छिपाना चाहिए ॥१६॥