Book Title: Prayaschitta Samucchaya
Author(s): Pannalal Soni
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha

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Page 208
________________ प्रायश्चित्त २०६ प्रायश्चित्तस आधा प्रायश्चित्त है और दिवामैथुनत्यागो, सचित्त खागी, मोषधोपवास करनेवाला, सामायिक करनेवाला, प्रतिक और दार्शनिक इन छह जघन्य श्रावकोंके लिए उन मध्यम तीन श्रावकोंके प्रायश्चित्तसे आधा प्रायश्चित्त है ॥ १३७ ॥ केचिदाहर्विशेषेण त्रिष्वप्यतेषु शोधनं। द्विभागोऽपि त्रिभागश्च चतुर्भागो यथाक्रम ॥ अर्थ-कोई आचार्य इन तीनों तरहके श्रावकोंका प्रायश्चित्त दूसरीही तरहसे कहते हैं। वे कहते हैं कि साधु प्रायश्चित्तसे आधा प्रायश्चित्त तो उत्कृष्ट श्रावकोंके लिए है। साधुके प्रायश्चित्तका ही तीसरा हिस्सा प्रायश्चित्त मध्यम श्रावकों के लिए हैं और साधुके प्रायश्चित्तका ही चौथा हिस्सा प्रायश्चित्त जघन्य श्रावकोंके लिए है ॥ १९॥ षण्णां स्याच्सवकाणां तु पंचपातकसंनिधौ। . महामहो जिनेन्द्राणां विशेषेण विशोधनम् ॥ ___ अर्थ-यद्यपि सभी श्रावकोंका प्रायश्चित्त ऊपर कह चुके हैं. तो भी छह जघन्य श्रावकोंका प्रायश्चित्त और भी विशेष है सोही कहते हैं । गोबंध, स्त्रीहसा, बालघात, श्रावकविनाश और ऋषिविघात ऐसे पांच पापोंके बन जाने पर जघन्य श्रावकोंके लिए जिन भगवान्का महामह करना यह विशेष प्रायश्चित्त है ॥१३८ आदावंते च षष्ठं स्यात् क्षमणान्येकविंशतिः। ३. प्रमादागोवधे शुद्धिः कर्तव्या शल्यवर्जितैः॥ ..

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