Book Title: Prayaschitta Samucchaya
Author(s): Pannalal Soni
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha

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Page 212
________________ २१० 'प्रायश्चित्तहैं। इसी तरह बाकीके ग्यारह व्रतोंकी पांच पांच उचारणा होती हैं। सव व्रतों संबन्धी सम्पूर्ण उच्चारणा मिलकर साठ होती हैं। पांच मूल उच्चारणाओंको पिला देने पर सब उच्चारणा पेंसठ हो जाती हैं सो ये पैंसठ इन बारह व्रतोंके दोष हैं। इन दोषोंके लगने पर उक्त प्रायश्चित्त यथायोग्य समझना चाहिए ॥१४॥' रेतोमूत्रपुरीषाणि मद्यमांसमधूनि च।। अभक्ष्यं भक्षयेत् षष्ठं दर्पतश्चेद् द्विषदक्षमा॥१४७ अर्थ-वीर्य, मूत्र, पुरीष (ही) मद्य, मांस, मधु और अभक्ष्य-रुधिर, चर्म, हड्डी आदि यदि जघन्य श्रावक प्रमाद वश खाय तो षष्ठपायश्चित्त है। यदि अहंकारमें तन्मग्न होकर उक्त चीजोंको खाय तो बारह उपवास प्रायश्चित्त है ॥१४७॥ . . पंचोदुंबरसेवायां प्रमादेन विशोषणं । चांडालकारकाणां षडन्नपाननिषेवणे ॥१४॥ .. अर्थ-अहंकार वंश पांच उदुम्बर फलोंके खानेका प्रायश्चित्त बारह उपवास है और प्रयादवश खाय तो उपवास प्रायश्चित्त है तथा चांडाल आदिके यहां और धोवी आदि कारू शद्रोंके यहां अन्न-पान सेवन करे तो छह उपवास प्रायश्चित्त है। सद्योलंघि (वि)तगोधात बन्दीगृहसमाहतान् । कृमिदष्टं च संस्पृश्य क्षमणानि षडश्नुते ॥१४॥ अर्थ-रम्सी आदिसे बंधकर मरे हुए, गायके सींगोंके काराग्रह (जेलखाने ) में बन्द कर देनेसे

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