Book Title: Prayaschitta Samucchaya
Author(s): Pannalal Soni
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha

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Page 197
________________ चूलिका। त्रिषु वर्णेष्वेकतमः कल्याणांगः तपःसहो वयसा। सुमुखः कुत्सारहितः दीक्षाग्रहणे पुमान् योग्यः॥ अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य इन तीनोंमेंसे कोईसा भी एक मोतका अधिकारी है, वही वयके अनुसार तपश्चरण करने वाला सुन्दर और ग्लानिरहित दीक्षा ग्रहणके योग्य है ॥ १०६॥ न्यक्कुलानामचेलैकदीक्षादायी दिगम्बरः। जिनाज्ञाकोपनोऽनन्तसंसारः समुदाहृतः ।१०७॥ अर्थ-ब्राह्मण, क्षत्रिय, और वैश्य इन तीनों वणोंसे बहिर्भूत नीच कुलो-शूद्र भादिको सम्पूर्ण जगतमें प्रधानभूत निर्ग्रन्थ-दीक्षा देनेवाला दिगम्बर साधु सर्वज्ञके वचनोंके पतिकूल है और अनन्तसंसारी है ॥१०७॥ दीक्षां नीचकुलं जानन् गौरवाच्छिध्यमोहतः । यो ददात्यथ गृह्णाति धर्मोद्दाहो द्वयोरपि ॥ ___ अर्थ-जो प्राचार्य, नोचकुल वाला जानकर भी उस नीच कुलीको ऋद्धिके गर्वसे अथवा-शिष्य बनानेकी अभिलाषासे दीक्षा देता हैं और जो नीचकुली निन थ दीक्षा लेता है उन दोनोंहीका धर्म दूषित है ॥ १०८॥ अज़ानाने न दोषोऽस्ति ज्ञाते सति विवर्जयेत् । आचार्योऽपि स मोक्तव्यःसाधुवगैरतोऽन्यथा ॥ अर्थ-जो कोई प्राचार्य नीच कुलीको नीच कुलो न जान

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