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चलिका
१९७ दो उसीके पास फिर भी दीक्षा लेना चाहिए, अन्य आचार्यके पास नहीं। नियन्य लिंगसे रहित अन्यलिंगी, पिथ्याष्टि गृहस्थ और श्रावक इनको मूल (मारंभ) से हो दीक्षा है अतः ये चाहे जहां दीक्षा ले सकते हैं। ११३ ॥ कुलीनक्षुल्लकेष्वेव सदा देयं महाव्रतं । सल्लेखनोपरूटेषु गणेंद्रेण गणेच्छुना ॥११३॥ __ अर्थ-सज्जाति विवाहिता ब्राह्मणीमें ब्राह्मणसे, क्षत्रियाणीमें क्षत्रियस ओर वैश्य वीमें वैश्यसे उत्पन्न हुए पुरुषके ही मातृपक्ष और पितृपक्ष ये दोनोंकुल विशुद्ध हैं अतः इन विशुद्ध उभय कुलोंमें उत्पन्न हुआ तुल्लक जिसने कि व्यंग
आदि कारणों के वश तुल्लक व्रत धारण कर रक्खा हो वह समाधिमरण करने में तत्पर हो तब उसे निग्रंथ दोक्षा देना चाहिए। परंतु जो ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यके विशुद्ध उभयकुलमें उत्पन्न नहीं हुआ है उस तुल्लकको कभी भी निन्य दोक्षा नहीं देना चाहिए ॥ ११ ॥ ___ इस तरह ऋषि प्रायश्चित्त पूर्ण हुआ अब आर्थिकाओंका प्रायश्चित्त बताते हैंसाधूनां यद्वदुद्दिष्टमेवमार्यागणस्य च । दिनस्थानत्रिकालोनं प्रायश्चित्तं समुच्यते ॥
अर्थ-जैसा प्रायश्चित्त साधुओंके लिए कहा गया है वैसा हो आर्यिकामोंके लिए कहा गया है, विशेष इतना है कि दिन