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प्रायश्चित्त-समुच्चय । और दश कुल मिलाकर पचास पुरुष होते हैं। इन पचास पुरुषोंको यथायोग्य प्रायश्चित्त वितरण करना चाहिए ।। १५६ ॥ तेऽथवा पंचधोद्दिष्टा स्थानेष्वेतेष्वनुक्रमात् ।
आत्मोभयतरावन्यतरशक्तश्च नोभयः ॥१६०॥ परतरोऽपि निर्दिष्टस्त एवं पंच पूरुषाः। यथान्यायं तथैतेऽपि सप्त भाज्या गणेशिना॥ __ अर्थ-ऊपर बताये हुए पचास पुरुष अथवा अन्य स्थानों में क्रमसे आत्मसमर्थ, उभयतरसमर्थ, अन्यतर समर्थ, अनुभय और परतर ये पंचमकारके पुरुष कहे गये हैं। ये सब प्राचार्य द्वारा यथायोग्य प्रायश्चित्तसे शुद्ध किये जाने योग्य हैं ॥१६०-१६॥ प्रायश्चित्तं गुरूद्दिष्टमग्लानः सन् करोति यः । वैयावृत्यं न रोचत स आत्मतर इरितः ॥१६२॥
अर्थ-जो आचार्य द्वारा दिये गये प्रायश्चित्तको अन्तःकरणमें खेदखिन्न न होता हुआ करता है और यासत्य नहीं चाहता है वह आत्मतर कहा गया है ॥ १६२ ॥ प्रायश्चित्तं गुरूद्दिष्टं सुबह्वपिं करोति यः। वैयावृत्यं च शुद्धात्मा द्वितरोऽसौ प्रकीर्तितः ।।
अर्थ-जो पुरुष गुरु द्वारा दिये गये भारीसे भारी प्रायश्चित्रको करता है और वैयाहत्व भी चाहता है। वह शुद्धभारधारी उभयंतर कहा गया है ।।.१६३ ।। . .