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चुलिका।
१७३ अर्थ-काक, अमेध्य, वमन, रोध, रुधिर देखना, अश्रुपात आदि जो जो मुनि भोजनके अंतराय हैं उनको न टालकर अथवा इन अंतरायोंके जाने पर भी भोजन करे तो उपवास प्रायश्चित्त है। साग की हुई वस्तुको भक्षण करते हुए फिर उसका स्मरण हो जाय तो स्मरण आतेही उसको साग देना फिर न खाना ही प्रायश्चित्त है और यदि वह सागकी हुई वस्तु सबकी सब खानी गई हो तो उपवास प्रायश्चित्त है ।। ५५॥ महान्तरायसंभूतौ क्षमणेन प्रतिक्रमः। भुज्यमाने क्षते शल्ये षष्ठेनाष्टमतो मुखे ॥५६॥
अर्थ-भारी अंतरायका संभव होने पर उपवास और प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त है। भोजन करते हुए हड्डी वगैरह दीख पडे तो पष्ठ और प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त है और मुखमें हड्डो वगैरह मालूम पडे तो तीन उपवास और प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त है। भावार्थ-भोजन करते समय हड्डी आदिसे मिला हुआ भोजन रूप भारी अंतराय आगया हो और भोजन करलेनेके अनन्तर सुननेमें आया हो तो उस अपराधका उपवास और प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त है। भोजन करते हुए खुद अपने हाथमें हड्डी वगैरह देख ले तो पष्ठ और प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त है तथा भोजन करते करते अपने मुखमै हड्डी वगैरह समुपलब्ध हो तो. निरंतर तीन उपवास और प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त है। यहां पर शल्य ग्रहण उपलक्षणार्थ है इसलिए गोला चर्म, रुधिर आदि
ग्रहणका भी यही प्रायश्चित्त है ।। ५६ ॥..