Book Title: Prayaschitta Samucchaya
Author(s): Pannalal Soni
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha

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Page 194
________________ १९२ प्रायश्चित्तवैयावृत्यानुमोदेऽपि तद्व्यस्थापनादिके। पथ्यस्यानयने सम्यक् सप्ताहादुपसंस्थितिः॥ अर्थ शरीरका आहार औषध आदिके द्वारा उपकार करनारूप वैयाटसकी मंद ग्लान आदि कारणोंको लेकर अनुमोदन करने पर, वैयाटस संवन्धी भाजनोंको रखना, धोना, बांधना आदि क्रिया करने पर तथा रोगी मुनिके लिए प्रयत्नपूर्वक योग्य आहारविशेष लाने पर सप्त दिनके अनन्तर प्रतिक्रमणपूर्वक उपवास प्रायश्चित्त है। उपवास यद्यपि श्लोकमें नहीं कहा गया है तो भी उसका ग्रहण है क्योंकि प्रतिक्रमण उपवासके विना नहीं होता ॥८॥ स्वच्छंदशयनाहारः प्रसाधन करणे व्रते। द्वयोरप्यविशुद्धित्वाद्वारणीयस्त्रिरात्रतः ॥ ९९ ॥ __ अर्थ-अपनी इच्छानुसार सोनेवाला और आहार करने बाला, तथा पांच नमस्कार क्रिया छह आवश्यक क्रिया, आसेंधिका और निषेधिका एवं तेरह क्रिया और पांचमहाव्रतोंमें अनादर करनेवाला ये दोनों-इच्छानुकूल करनेवाले औरः । अनादर करनेवाले दोषी हैं इसकारण तीन दिन देखकर गाद निषेध कर देनेके योग्य है ।। ६॥ . भूरिमृजलतः शाचं यो वा साधुः समाचरेत् । . सोपस्थापनोपवासोऽस्य वस्तिवण्यादिकेष्वपि ॥. अर्थ-जो साधु प्रचुर मिट्टी और जलसे शौच करता हो.

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