Book Title: Prayaschitta Samucchaya
Author(s): Pannalal Soni
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha

View full book text
Previous | Next

Page 192
________________ १९० प्रायश्चित उसके लिए क्रमले उपवास और आलोचना ये दो प्रायश्चित्ता माने गये हैं। भावार्थ-शिला पृथिवी आदि पर लिखकर शास्त्र पढे तो उपवास प्रायश्चित्त और उदर, जांघ, घुटना, भुजा आदि पर लिखकर भागमका अध्ययन करे तो आलोचना मायश्चित्त माना गया है ।। ६२ ॥ जातिवर्णकुलोनेषु भुक्तेऽजानन् प्रमादतः । सोपस्थानं चतुर्थं स्यान्मासोऽनाभोगतो मुहुः॥ ___ अर्थ-पाताकी वंश परम्पराको जाति और पिताकी वंश परम्पराको कुल कहते हैं। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये चार वर्ण हैं। वेश्या आदि जाति और कुलस रहित हैं क्योंकि उनके माता-पिताकी वंश परम्पराका कोई निश्चय नहीं है। ब्राह्मणो क्षत्रियसे पैक्षा हुआ मूत, ब्राह्मणीमें वैश्यसे उत्पन्न हुआवैदेहिक आदि वर्णरहित हैं। यदि कोई मुनि स्वयं न जानता हुआ इन जाति, वर्ण और कुलसे रहित पुरुषोंके घरपर औरोंके न देखते हुए एवबार भोजन करे तो उसके लिए प्रति- : क्रमण-पूर्वक उपवास और वारवार भोजन करे तो पंचकल्याणक प्रायश्चित्त है ।। ६३॥ जातिवर्णकुलोनेषु भुंजानोऽपि मुहुर्मुहुः।। साभोगेन मुनिनूनं मूलभूमि समश्नुते ॥ ९४॥ अर्थ-जिनको जाति; वर्ण और कुल उक्त प्रकारसे निंद्य हैं

Loading...

Page Navigation
1 ... 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219