Book Title: Prayaschitta Samucchaya
Author(s): Pannalal Soni
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha

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Page 190
________________ प्रायश्चित्त योऽप्रियकरणं कुर्यादनुमोदेत चाथवा। .. दूरस्थोऽसौ जिनाज्ञायाः षष्ठं सोपस्थितिं ब्रजेत् ॥ अर्थ-जो साधु अप्रियकरण --स्वाध्याय, नियम, बन्दना । आदि क्रिया में कमी करता है अथवा उसकी अनुमोदना करता है वह जिन भगवानको आज्ञासे वहिर्भूत है और प्रतिक्रमण सहित षष्ठ प्रायश्चित्तको प्राप्त होता है ॥८६॥ तृणकाष्ठकवाटानामुद्घाटनविघट्टने । चातुर्मास्याश्चतुर्थं स्यात् सोपस्थानमवस्थितं ॥. • अर्थ-तृण और काष्ठके बने हुए कपाट आदि चीजोंके : खोलने और बंद करनेका चार मासके अनन्तर अतिक्रमण सहित उपवास प्रायश्चित्त निश्चित है॥८७॥ . शश्वद्विशोधयेत् साधुः पक्षे पक्षे कमंडलु।। तदशोधयतो देयं सोपस्थानोपवासनं ।। ८८॥ __ अर्थ-साधु पंद्रह पंद्रह दिनके बाद संमूर्छन जोवोंके निराकरणके अर्थ कमंडलुको भीतरसे धोवे-साफ करे। जो साधु उस ‘कमंडलुको पंद्रह पंद्रह दिन वाद न धोवे तो उसको प्रतिक्रमण ओर उपवास प्रायश्चित्त देना चाहिए ॥८॥ मुखं क्षालयतो भिक्षोरुदविंदुर्विशेन्मुखे। आलोचना तनूत्सर्गः सोपस्थानोपवासनं ।।.

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