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चलिका। तत्प्रतिष्ठा च कर्तव्याघ्रावकाशे पुनर्भवेत् । चतुर्विधं तपश्चापि पंचकल्याणमन्तिमं ॥ ७४॥
अर्थ-उन स्थान, मोन अवग्रह आदि योगांकी पुनर्व्यवस्थापना भी करनी चाहिए अर्थात् मायश्चित्त देकर फिर भी उन्ही योगोंमें स्थापित करना चाहिए । तथा प्रभावकाश योग के भंग होनेपर आलोचना, प्रतिक्रमण, उभय ओर स्थानविवेक और गणविवेक एवं दोनों तरहका विवेक प्रायश्चित्त है । और पुरुमंडल, निर्विकृति: एकस्थान, आचाम्ल, उपवास, कल्याण, वेला, तेला, चौला, पचौलाको आदि लेकर अंतिम पंच कल्याण पर्यंतका तप मायश्चित्त भी है ।। ७४ ।। सकृदप्रासुकासेवेऽसकृन्मोहादहंकृतेः। क्षमणं पंचकं मासः सोपस्थानं च मूलकं ॥
अर्थ-प्रज्ञानवश त्रस स्थावर आदि जोवोंसे व्याप्त वसतिका आदि प्रदेशोंमें एक बार निवास करने पर उपवास और पार वार निवास करने पर कल्याण प्रायश्चित्त है। तथा अहंकार वश एक वार निवास करनेपर प्रतिक्रमण और पंचकल्याण प्रायश्चित्त और बार वार निवास करने पर मूलप्रायश्चित्त है ।। ग्रामादीनामजानानो यः कुर्यादुपदेशनं । । जानन धर्माय कल्याणं मासिकं मूलगः स्मये॥
अर्थ-जो मुनि, ग्राम, पुर, घर, वसति आदिके वनवानेमें