Book Title: Prayaschitta Samucchaya
Author(s): Pannalal Soni
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha

View full book text
Previous | Next

Page 186
________________ १८४ प्रायश्चितदोषोंको न जानता हुआ उनके बनानेका उपदेश करता है वह कल्याण प्रायश्चित्तको प्राप्त होता है । दोषोंको जानता हुआ उनके प्रारंभका उपदेश करता है वह पंचकल्याण प्रायश्चित्तका भागी है तथा गर्व-अहंकारमें र होकर जो ग्राम आदिका उपदेश करता है वह मूल प्रायश्चित्तको प्राप्त होता है ॥ ६ ॥ आलोचना तनूत्सर्गः पूजोद्देशेऽप्रबोधने। सोपस्थाना सकृद्देया क्षमा कल्याणकं मुहः॥ __ अर्थ-पूजा संबंधी प्रारंभके दोषोंको न जाननेवाले मुनिको एकबार पूजाका उपदेश देने पर आरंभका परिमाण जान कर आलोचना अथवा कायोत्सर्गप्रायश्चित्त प्रतिक्रपण सहित उपवास पर्यंत दे तथा बार बार पूजोपदेश दे तो कल्याणक पायश्चित्त दे। भावार्थ-जो मुनि पूजाके आरंभसे उत्पन्न होनेवाले दोषोंको नहीं जानता है वह यदि एकवार गृहस्थोंसे पूजाका आरंभ करावे तो उसे प्रारंभके अनुसार आलोचना अथवा कायोत्सर्ग प्रायश्चित्तको आदि लेकर उपवास पर्यंत प्रायश्चिच दे और वारवार प्रारंभ करावे तो कल्याणक प्रायश्चित्त दे॥ जाननस्यापि संशुद्धिः सकृचासकृदेव च।। पस्थानं हि कल्याणं मासिकं मूलमावधे॥ अर्थ-जो मुनि पूजारम्भसे जन्य दोपोंको जानता हो वह पूजाके प्रारम्भका एक बार उपदेश दे तो उसके उस अप- .

Loading...

Page Navigation
1 ... 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219