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प्रायश्चित्त
आधाकर्मणि सव्याधेनिधेिः सकृदन्यतः। . उपवासोऽथ षष्ठं च मासिकं मूलमेव च ॥ ५७॥ __ अर्थ-कोई रोगो मुनि, आधाकर्मद्वारा उत्पन्न हुआ भोजन एक वार खाय तो उपवास और बार बार खाय तो पष्ठ प्रायश्चित्त है। तथा नीरोग मुनि आधाक द्वारा उत्पन्न भोजनको. एकवार खाय तो पंचकल्याण और वारवार खाय तो मूल: प्रायश्चित्त है। जो भोजन छह निकायके जीवोंकी बाधा-हिंसासे. . उत्पन्न हुआ हो वह आधाकर्म द्वारा उत्पन्न हुआ भोजन कहः .. लाता है ॥ ५७॥ स्वाध्यायसिद्धये साधुर्याद्देशादि सेवते। प्रायश्चित्तं तदा तस्य सर्वदेव प्रतिक्रमः॥५८॥ __ अर्थ-खाध्यायसिद्धिके निमित्त यदि साधु उद्देशक आदि । दोषोंसे उत्पन्न हुआ भोजन सेवन करे तो उसके लिए सर्व काल . प्रतिक्रम प्रायश्चित्त है। यहां पर भी प्रतिक्रम शब्दका अर्थ नियम है॥५८॥ एकं ग्राम चरेद्भिक्षुर्गन्तुमन्योन कल्पते। द्वितीयं चरतो ग्रामं सोपस्थानं भवेत्क्षमा ॥५९॥
अर्थ-एक ग्राममें चर्याके लिए पर्यटन कर उसी दिन भिताके लिए दूसरे ग्रामको जाना उचित नहीं है। यदि कोई मुनि एक गांवमें भोजन के लिए पर्यटन कर उसी दिन दूसरे .