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चूलिका । १७१ चतुर्वर्णापराधाभिभाषिणः स्यादबन्दनः। असंभाष्यश्च कर्तव्यः स गाणं गणिकोऽपि च ॥
अर्थ-ऋषि, मुनि, यति, अनगार अथवा साधु, आर्या, श्रावक, श्राविका इनको चतुर्वर्ण कहते हैं। इस. चतुर्वर्णके अपराधको कहनेवाला साधु अवंदनीय और असंभाष्य है अर्थात् उसको न तो वन्दना करना चाहिए और न उसके साथ भाषण करना चाहिए। तथा गणसे निकाल देना चाहिए। फिर यदि वह खेदखिन्न होकर इस तरह कई कि हे भगवन् ! मुझे उचित मायश्चित्त- दीजिये तब चतुर्वर्ण श्रमण के बीच उसकी शुद्धि करना चाहिए ।। ५२॥
अब एषणासमितिके दोषोंको शुद्धि बताते हैं, अज्ञानाद्व्याधितो दात् सकृत्कंदाशनेऽसकृत् । कायोत्सर्गः क्षमा शान्तिः पंचकं मासमूलके॥ __ अर्थ-अज्ञानवश, व्याधिवश और अहंकारवश एक बार
और अनेक बार कंदादिके खानेका क्रमस, कायोत्सर्ग, उपवास, उपवास, कल्याणक, पंचकल्याण और मूल प्रायश्चित्त है। भावार्थ- यहां पर कंद शब्द उपलक्षणार्थ है अथवा आदि शब्द लुप्त है इस लिए कन्द, फल, वीज, मूल आदि अप्रासुक चीजोंका संग्रह है। सूरण, पिंडालु, रतालु आदि चीज कंद कह'लाती हैं। प्राम, विजौरा प्रादि चीजोंको फल कहते हैं। गेह,