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दाधिकार।
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अर्थ-संज्ञा कायमलके त्यागनेमें, उदभ्रान्त-दूसरे ग्रामको सिर्फ जानेम, आदि शब्दसे और भी गमन-आगमन (इधर-उधर जाने आने) आदि क्रियाओंके करनेमें ईर्यासमितिसे युक्त होते हुए, तीनों गुप्तियों के पालनमें कोई तरहका प्रमाद न करते हुए, प्राणिसंयम और इंद्रियसंयमके पालन करनेमें भी दोप न लगाते हुए तथा दोषोंके निवेदन करनेमें भाव होते हुए भी जब तक वह साधु संज्ञा, उद्घान्त, विहार आदि क्रियाओं को करके गुरुके पास न आवे तब तक शुद्ध नहीं है-अशुद्ध है सदोष है। बाद गुरुके पास आकर आलोचना करके शुद्धनिर्दोष होता है ।। १८४-१८५॥ ये विहाँ विनिष्क्रान्ता गणाचरणसंयताः।
आगतानां पुनस्तेषां शुद्धिरालोचना भवेत् ॥ ___ अर्थ-जो कोई मुनि किसी प्रयोजन वश अपने गणसे निकलकर युक्ताचारपूर्वक विहार करनेके लिए चले जाय वे जव लौटकर वापिस पावें तब उनके लिए उसका आलोचना प्रायश्चित्त है ।। १८६॥ अन्यसंघगतानां च विशुद्धाचारधारिणां । उप्संपत्समेतानां शुद्धिरालोचना भवेत् ॥१८७॥
अर्थ-जो कोई मुनि अपने आचरणमें कोई तरहका दोष न लगाते हुए दूसरे संघको जाकर अपने संघमें वापिस आ तो उनके लिए उसका.मालोचना प्रायश्चित्त है ॥१८७॥