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१२० प्रायश्चित्त-समुच्चय। भक्तपानं विशुद्धं च भावदुष्टमशुद्धिमत् । । सर्वमेवाथ तज्जुष्टं विशुद्धः संपरित्यजन्॥
अर्थ-शुद भी अन्न-पान यदि परिणामोंसे दूषित हो .जाय अर्थात् उसमें बुरे परिणाम हो जाय तो वह शुद्ध भी भोजन अशुद्ध हो जाता है। अतः उस सारे ही सदोष और अदोष भोजनकोया जितना परिणामोंसे दूषित हुआ है उतनेको छोड़ देने वाला शुद्ध है-उस भोजनको छोड़ देना ही उसके लिए विवेक नामका प्रायश्चित्त है और कोई जुदा प्रायश्चित्त नहीं ॥ १८॥ भक्तपाने विशुद्धेऽपि क्षेत्रकालसमाश्रयात् । द्रव्यतः स्वीकृते रात्रौ विशुद्धस्तत्परित्यजन् ।।
अर्थ-देश और कालके आश्रयसे कि इस देशमें दुर्भिक्ष. है या यह समय दुर्भिक्षका है न जाने फिर आहार मिलेगा या नहीं इस प्रकार दुर्मिक्ष आदि किसी भी कारणका मनमें संकल्प कर अथवा शरीरमें कोई रोग नगैरह होनेके कारण निर्दोष रीतिसे तैयार किये गये शुद्ध भी अन्न-पानको रात्रिमें लेना स्वीकार करने पर विवेक (उस भोजनको साग देना हो) प्रायश्चित्त होता है ॥ १६॥ प्रत्याख्यातं निषिद्धं यद्भक्तपानादिकं भवेत् । तत्पाणिपात्रास्यसंस्थं विशुद्धः परिवर्जयेत् ॥
अर्थ-जो अन्न, पान, स्वाय, लेख आदि भोजन त्यागः