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छदाधिकार।
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भक्तपानं विशुद्धं च समादायैषणाहतं। . तन्मानं वाथ सर्व वा विशुद्धः संपरित्यजन् । ___ अथ-एषणादोषोंसे दुषित प्रासुक भी आहार पानको ग्रहण कर, जितना दषित है उतनेको या सबके सब सदोष
और निर्दोष आहार-पानको छोड़ देने वाला विशुद्ध हैप्रायश्चित्तरहित है। भावार्थ-आहार तो प्रासुक-शुद्ध बना हुआ हो पर वह एपणा दोपोंसे दुषित हो गया हो ऐसे आहार पानके ग्रहण करनेका प्रायश्चित्त उसको छोड़ देना ही है और कोई जुदा प्रायश्चित्त नहीं ॥ १६॥ . भक्तपानं विशुद्धं च कोटिजुष्टमशुद्धियुक् । तन्मात्रं वाथ सर्व वा विशुद्धः संपरित्यजन् ॥
अर्थ-पासुक भी अन्न पान, क्या यह अन्न, पान मेरे ग्रहण करने योग्य है या नहीं ? ऐसी आशंका से युक्त हो गया हो तो वह अशुद्ध है अतः उतने ही-जितनेमें कि आशंका उत्पन्न हुई है अथवा सबके सव सदोष और निर्दोष आहारको भी साग देनेवाला विशुद्ध है मायश्चित्तरहित है। भावार्थप्रासुक भी आहारमें यह योग्य है या अयोग्य ऐसो आशंका होने पर उस आहारको छोड़ देना हो उसका प्रायश्चित्त है अन्य नहीं ॥१७॥