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१३८ प्रायश्चित्त-मुच्चय । मूलभूमिमतिकान्तः संप्राप्तः परिहारकं । परिहारविधि प्राज्ञः संप्रपद्येत भावतः ॥ २४०॥ ___ अर्थ-मूलमायश्चित्तको योग्यताको उल्लंघन कर चुका हो अर्थाव ऐसा अपराध जो मूल प्रायश्चित्तसे शुद्ध न हो सकता हो । तो वह परिहार प्रायश्चित्तके योग्य होता है अतः वह बुद्धिमान 'परमार्थसे परिहार प्रायश्चित्तको प्राप्त होता है ।। २४० ॥ परिहार्यः स संघस्य स वा संघ परित्यजन् । परिहारो द्विधा सोऽपि पारंच्यप्यनुपस्थिति॥
अर्थ-वह प्रायश्चित्तभागी पुरुष संघका परिहार्य होता है अथवा वह संघका परिहार करता है। परिहार प्रायश्चित्तके दो भेद हैं एक अनुपस्थान और दूसरा पार चिक। भावार्थकिसी नियत अवधिको लिए हुए वह प्रायश्चित्तभागी पुरुष संघसे बाहर कर दिया जाता है अथवा वह संघसे वाहर रहता है इसोका नाम परिहार प्रायश्चित है। अनुपस्थान और पार चिक ये दो उसके भेद हैं ॥ २४ ॥ शिक्षकैरपि नो यस्य सुश्रूषावंदनादिकम् । . अभ्युत्थानं विधीयेत कुर्वतः सोऽनुपस्थितिः॥
अर्थ-वह साधु जो अनुपस्थान-प्रायश्चित्तके योग्य होता है । पश्चात् दोक्षित हुए साधुओंकी सेवा-सुश्रूषा करता है, उन्हें वंदना करता है और उन्हें आते देखकर विनयके अर्थ