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प्रायश्चित-समुच्चय । ऐसी अवस्थामें महाव्रतोंसे भ्रष्ट उस मुनिको पुनः महाव्रतोंको दीक्षा देना यह मूल प्रायश्चित्त देना चाहिए ॥२३४॥ . . दृक्चारित्रव्रतभ्रष्टे त्यक्तावश्यककर्मणि । अन्तर्वत्नीभुकुंसोपदीक्षणे मूलमुच्यते ॥२३५॥ ___ अर्थ-दर्शन, चारित्र और महावतोंसे भ्रष्ट हो जाने पर, छह आवश्यक क्रियाएं छोड़ देने पर तथा गर्भिणी और नपु. सकको दीक्षा देनेपर मूल प्रायश्चित्त देना चाहिए ॥ २३५॥ उत्सूत्रं वर्णयेत् कामं जिनेन्द्रोक्तमिति ब्रुवन् । यथाच्छंदो भवत्येष तस्य मूलं वितीर्यते ॥२३६॥ __ अर्थ-जो आगम विरुद्ध बोलता हो उसे मूल मायश्चित्त देना चाहिए। तथा जो सर्वज्ञ प्रणीत वचनोंको अपनी इच्छानुसार लोगोंको कहता फिरता हो वह स्वेच्छाचारी है अतः उस स्वेच्छाचारीको भी मूल प्रायश्चित्त देना चाहिए। भावार्थभागमा विरुद्ध बोलनेवाले और सर्वज्ञ प्रणीत वचनोंका मनमाना अर्थ करनेवाले पुरुषोंके इन अपराधोंकी शुद्धि मूल प्रायश्चित्तसे होती है ।।२३६॥ पार्श्वस्थादिचतुर्णां च तेषु प्रबजिताश्च ये। . तेषां मूलं प्रदातव्यं यद्ब्रतादि न तिष्ठति ॥ .
अर्थ-पार्श्वस्थ, कुशील, अवसन्न और मृगचारो इन पार्श्वस्थादि चारोंको और जो इनके पास दीक्षित हुए हैं उमको मूल पायश्चित्त देना चाहिए क्योंकि ये सव महावन आदिसे भ्रष्ट हैं ।