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छेदाधिकार।
अन्यतीर्थगृहस्थानां कांदपोलिंगकारिणः।। मूलमेव प्रदातव्यमप्रमाणापराधिनः॥२३८ ।
अर्थ-अन्यलिंगियोंको, गृहस्थोंको, उपहास पूर्वक लिंगधारण करनेवालोंको और अपरिमित अपराधियोंको मूल प्रायश्चित्त हो देना चाहिए। भावार्थ-जो अन्य लिंगी हो गये हों ओर गृहस्थ हो गये हों वे लौटकर पुनः संघमें आयें तो उन्हें मूल प्रायश्चित्त ही देना चाहिए। तथा जिन्होंने परमार्थसे मुनिवेष धारण न कर उपहाससे धारण किया हो और जिनका अपराध अपरिमित हो उनको भी मूल प्रायश्चित्त ही देना चाहिए ।। २३८॥ इत्यादिप्रतिसेवासु मूलनिर्घातिनीष्वपि । हरिवंश्यादिदीक्षायां मूलं मूलाधिरोहणात् ।। ___ अर्थ-मूलगुणोंको घात करनेवाले उपर्युक्त दोषोंके सेवन करने पर तथा चांडाल आदिको दीक्षा देने पर मूल पायश्चित्तकी योग्यता प्रा उपस्थित होती है अतः मूल प्रायश्चित्त देना चाहिए । भावार्थ-महावत आदि अट्ठाइस मूलगुणोंके घातक दोषोंके सेवन करने पर मूल प्रायश्चित्त देना चाहिए और चांडालोंको मुनिदीक्षा देनेवाले आचार्यको भी मूलमायश्चित्त देना चाहिए और जिसको दीक्षा दी जाय उसको संघसे निकाल देना चाहिए ॥२३६॥