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१३० प्रायश्चित्त-समुच्चय । नपुंसकस्ये कुत्स्यस्य क्लीवाद्यस्य च दीक्षण। वर्णापरस्य दीक्षायां षण्मासागुरवः स्मृताः॥ ___ अर्थ-नपुंसकको, कुष्ठ (कोढ़) ब्रह्महत्या आदि दोषोंसे दूषित पुरुषको, क्लीव-दीनको आदि शब्दसे अत्यन्त बालक और अत्यन्त वृद्धको तथा वर्णापर-दासीपुत्रको दीक्षा देने पर दीक्षादाताको छह गुरुमास प्रायश्चित्त देने चाहिए सो ही छेदपिंडमें कहा हैअइबालवुड्ढदासेरगब्भिणीसंढकारुगादीणं । पवजा दितस्स हु छग्गुरुमासा हवदि छेदो ॥ १ ॥ अतिवालवृद्धदासेरगर्भिणीषंढकारुकादीनां । प्रवज्यां ददतः हि षड्गुरुमासाः भवति च्छेदः ॥ ___ अर्थात् अत्यन्त बालक, अत्यन्तद्ध, दासीपुत्र, गर्भिणी स्त्री, नपुंसक, शुद्र आदिको दीक्षा देनेवालेके लिए छह गुरुमास मायश्चित्त है ॥ २२१ ॥ तपोभूमिमतिक्रान्तो न प्राप्तो मूलभूमिकां। छेदाहाँ तपसो भूमि संप्रपद्येत भावतः॥२२२॥ __ अर्थ-जो तपकी योग्यताको उल्लंघन कर चुका हो और मूलभूपिको प्राप्त न हुआ हो वह परमार्थसे छेद योग्य तपो भूमिको प्राप्त होता है। भावार्थ-जो तप प्रायश्चित्तकी योग्यता