________________
१२२
प्रायश्चित्त-समुच्चय। तयार की गई नाव आदिके द्वारा विना मूल्य नदी, समुद्र तालाब आदि पार करनेका कायोत्सर्ग प्रायश्चित्त है ।। २०३ ॥ क्रम्यादौ निर्गते देहादेहासक्तमृते त्रसे। महिकायां महावाते त्रसोत्थाने गतावपि ॥ लोचानध्यासने रात्रावदृष्टे मलवर्जने। जीर्णोपधिपरित्यागे कायोत्सर्गो विशोधनं ॥ . ___ अर्थ-शरीरसे कृमि (लट) आदिके निकलने पर, अपने शरीरका स्पर्श पाकर अपने ही आप दो इंद्रिय आदि त्रस जीवोंके प्राण दे देने पर, जिनमें चींटी, डांस मच्छर आदि त्रस जीवोंका अधिक संचार हो ऐसी पृथिवी और प्रचंडवायुमें हो कर गमन करने पर, केशलोचको वाधा न सह सकने पर; रात्रिमें और दिनमें अशोधित स्थानमें मल-मूत्र करने पर, और पुराने तृण, चटाई आदि उपकरणों के छोड़ने पर, कायोत्सग प्रायश्चित्त होता है । २०४-२०५॥ श्रुतस्कंधपरीवर्तस्वाध्यायस्य विसर्जने।' कालाद्युल्लंघनं स्याचत्कायोत्सर्गो विशोधनं ॥ __अर्थ-पूर्ण श्रुतस्कंधका या उसके किसी भागका पाठ और मंत्रपदका जाप अथवा द्वादशांगका व्याख्यान और खाध्यायके 'पूर्ण होने पर और वाचना, वंदना, स्वाध्याय आदिके समयका
. होने पर कायोत्सर्ग प्रायश्चित्त होता है। भावार्थ-पूण